गीता तो पहले से है विश्वव्यापी ग्रंथ
एल एस हरदेनियागीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसके संदेश को हमारे अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने आजादी के आंदोलन के दौरान भरपूर महत्व दिया था। ऐसे राष्ट्रीय नेताओं में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे और जवाहरलाल नेहरू शामिल हैं। लेकिन हाल में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भगवत गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग की है। सुषमा जी की इस मांग के बाद एक राष्ट्रीय बहस प्रारंभ हो गई है। अनेक लोगों की यह राय है कि गीता एक ऐसा महान ग्रंथ है जिसे किसी राष्ट्र की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। सुषमा जी ने ऐसी मांग करके गीता की महानता को कम किया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे में कुछ लोगों की यह धारणा है कि वे भले ही पैदा भारत में हुए हों, चिंतन और रहन-सहन से वे पूरी तरह यूरोपीय थे। नेहरू जी के बारे में इस तरह की धारणा को फैलाने में दक्षिण पंथी विचारों में विश्वास करने वाले संगठनों एवं समूहों की भूमिका है। ऐसे तत्व यदि नेहरू जी के विचारों का, उनकी पुस्तकों का अध्ययन करते तो उनका यह भ्रम दूर हो सकता था।नेहरू जी ने अनेक किताबें लिखी हैं, जिनके पीछे उनका विराट और गहन अध्ययन था। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्हें लंबे समय तक अंग्रेजों की जेलों में रहने का मौका मिला था। लंबी सजाओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और लिखा। भारत की आत्मा को खोजने और उसे पहचानने और आत्मसात करने का गंभीर प्रयास पंडित नेहरू ने किया था। वे भारत की अतीत ऐतिहासिकता से बेहद प्रभावित थे। विस्तृत इतिहास की समुद्र जैसी गहराइयों में उन्होंने कितनी ही बार गोते लगाये। भारत की आत्मा को पहचानने के प्रयासों में उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, गीता जैसे ग्रंथों और रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों का विश्लेषण-परक अध्ययन किया। साथ में ही उन्होंने इन बुनियादी ग्रंथों के ऊपर भारतीय और विदेशी विद्वानों की टिप्पणियां भी पढ़ीं और उन्हें आत्मसात भी किया। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदुस्तान की कहानी’ में वे एक जगह लिखते हैं ‘पिछली बातों के लिये अंधी-भक्ति बुरी होती है, साथ ही उनके लिए नफÞरत भी उतनी ही बुरी है। इसकी वजह यह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। वर्तमान का और भविष्य का लाजमी तौर से भूतकाल से जन्म होता है और उन पर उसकी गहरी छाप होती है। इसको भूल जाने के मानी हैं इमारत को बिना बुनियाद के खड़ा करना और कौमी तरक्क की जड़ को ही काट देना। राष्ट्रीयता असल में पिछली तरक्क, परम्परा और अनुभवों की एक समाज के लिए सामूहिक याद है। यूं नेहरू जी ने पूरा-साहित्य और मिथकों आदि का बहुत गहराई से अध्ययन किया था अत: वे वेदों के स्वाभाविक प्रशंसक थे। वेदों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि ‘शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग था। वेद शब्द की व्युत्पत्ति व्युद धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय की जानकारी को इकट्ठा कर देना था। उनमें बहुत सी चीजें मिली-जुली हैं। स्तुतियां हैं और बड़ी ऊंची प्रकृति संबंधी कविताएं हैं। उनमें मूर्तिपूजा नहीं है। देवताओं के मंदिरों की चर्चाएं नहीं हैं जो जीवनी-शक्ति और जिंदगी के लिये इकरार उनमें समाया हुआ है वह गैर मामूली है। महाभारत के बारे में नेहरूजी लिखते हैं-‘महाकाव्य की हैसियत से रामायण एक बहुत बड़ा गंथ जरूर है और उससे लोगों को बहुत चाव है लेकिन यह महाभारत है जो दरअसल दुनिया की सबसे खास पुस्तकों में से एक है। यह एक विराट कृति है। परंपराओं और कथाओं का और हिंदुस्तान की कदीमी राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का यह एक विश्व-कोष है। महाभारत में हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर जोर देने की बहुत निश्चित कोशिश की गई है। महाभारत एक ऐसा बेशकीमती भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की अनमोल चीजें मिल सकती हैं। यह रंगबिरंगी घनी और गुदगुदाती जिंदगी से भरपूर है। इस मामले में यह हिंदुस्तानी विचारधारा के दूसरे पहलुओं से हटकर है जिसमें तपस्या और जिंदगी से इंकार पर जोर दिया गया है। महाभारत की शिक्षा का सार यदि एक जुमले में कहा जाए तो है- ‘दूसरे के लिए तू ऐसी बात न कर जो खुद तुझे अपने लिए पसंद न हो’। भगवत गीता के बारे में नेहरू एक प्रसिद्ध विदेशी विद्वान विलियम बाण्डहॅबोल्ट के विचारों को उधृत करते हुये कहते हैं ‘यह सबसे सुंदर और अकेला दार्शनिक काव्य है जो किसी भी जानी हुई भाषा में नहीं मिलता है।’ बौद्धकाल से पहले जब इसकी रचना हुई तब से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव नहीं घटा है और आज भी इसके लिये पहले जैसा आकर्षण बना हुआ है। दरअसल गीता का संदेश किसी संप्रदाय या जाति के लिये नहीं है। क्या ब्राह्मण, क्या निम्न जाति, सभी के लिये है। गीता में कहा गया है कि सभी रास्ते मुझ तक आते हैं। इसी तरह उपनिषदों के संबंध में नेहरू लिखते हैं कि ‘ये छानबीन की, मानसिक साहस की और सत्य की खोज के उत्साह की भावना से भरपूर हैं।’ यह सही है कि यह सत्य की खोज मौजूदा जमाने के विज्ञान के प्रयोग के तरीकों से नहीं हुई है। फिर भी जो तरीक अख्तियार किया गया है उसमें वैज्ञानिक तरीक का एक अंश है। इन दोनों का मूल एक ही बताया गया है। उपनिषदों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें सच्चाई पर बड़ा जोर दिया गया है। सच्चाई की सदा जीत होती है झूठ की नहीं। सच्चाई के रास्ते से ही हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। उपनिषदों की यह प्रार्थना मशहूर है ‘असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, अंधकार की ओर से प्रकाश की ओर मुझे ले चल, मृत्यु से मुझे अमृत्व की ओर ले चल।’ उपनिषदों में एक सवाल है जिसका बहुत अनोखा लेकिन मार्के का जवाब दिया गया है। सवाल यह है कि यह विश्व क्या है? यह कहां से उत्पन्न होता है? और कहां जाता है? इसका उत्तर है-स्वतंत्रता से इसका जन्म होता है। स्वतंत्रता पर ही यह टिका है और स्वतंत्रता में ही वह लय हो जाता है। सारे संसार में ऐसी कोई रचना नहीं है जिसका पढ़ना इतना उपयोगी, इतना ऊंचा उठाने वाला हो जितना उपनिषदों का है। वे सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज हैं। प्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक शोपेनहावर के विचारों को उद्धृत करते हुए नेहरू कहते हैं कि उपनिषदों के हरएक शब्द से गहरे मौलिक और ऊंचे विचार उठते हैं और इन सब पर एक ऊंची पवित्र उत्सुक भावना छाई हुई है। सारे संसार में कोई ऐसी रचना नहीं जिसका पढ़ना इतना उपयोगी हो जितना उपनिषदों का। ये सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज है। उपनिषदों के पढ़ने से मेरी जिंदगी को शांति मिलती है। यही मेरे मौत के समय भी शांति देगा। रामायण के संबंध में नेहरूजी प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार मिशले के विचारों को उद्धृत करते हुए कहते हैं ‘जिस किसी ने भी बड़े काम किए हैं या बड़ी आकांक्षाएं की हैं, उसे इस गहरे प्याले से जिंदगी और जवानी की लंबी घूंट पीना चाहिए। रामायण मेरे मन का महाकाव्य है। हिंद महासागर जैसा विस्तृत मंगलमय सूर्य के प्रकाश से चमकता हुआ, जिसमें देवीय संगीत है और जहां कोई बेसुरापन नहीं है। वहां एक गहरी शांति का राज्य है और कशमकश के बीच भी वहां बेहद मिठास और भाई-चारा है। जो सभी जिदा चीज पर छाया हुआ है। रामायण मोहब्बत, दया, क्षमा का अपार समुंदर है। नेहरूजी संस्कृत भाषा के बड़े प्रशंसक थे। संस्कृत के संबंध में वे लिखते हैं कि वह ‘अद्भुत रूप से सम्पन्न, हरी-भरी और फूलों से लदी हुई भाषा है। फिर भी वह नियमों से बंधी हुई है और 2600 वर्ष पहले व्याकरण का जो चैखटा, पाणिनि ने इसके लिए तैयार कर दिया, वो उसी के भीतर ही चल रही है। ये फैली खूब, सम्पन्न हुई। भरी-पूरी और अलंकृत बनी लेकिन अपने मूल को पकड़े रही। संस्कृत के संबंध में नेहरू जी एक यूरोपीय विद्वान सर विलियम जोन्स के विचारों को उधृत करते हैं। जोन्स ने 1884 में कहा था संस्कृत भाषा चाहे जितनी पुरानी हो उसका गठन अद्भुत है। यूनानी भाषा के मुकाबले में ज़्यादा मुकम्मिल, लातीनी के मुकाबले में ज़्यादा सम्पन्न और दोनों के मुकाबले में यह ज़्यादा परिष्कृत है। ये तो कुछ उदाहरण हैं जिनसे नेहरू जी की भारत के गौरवशाली इतिहास के संबंध में प्रशंसनीय विचार जानने को मिलते हैं। वैसे उनकी किताबें विश्व इतिहास की झलक और मेरी कहानी तथा उनके व्याख्यान भारत के अतीत की प्रशंसा से भरे पड़े हैं। उनकी यह मान्यता थी कि अतीत की अंध-भक्ति से भारत का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। इसलिए उनकी यह धारणा थी कि धर्मनिरपेक्ष- वैज्ञानिक समझ के आधार पर आधुनिक भारत की नींव मजबूत करने के लिए भारत के अतीत के उज्ज्वल पक्ष का सहारा लेना चाहिए।[लेखक एल एस हरदेनिया देश जानेमाने पत्रकार हैं ]