अनंग से लड़ने की शक्ति
हेमंत शर्मा ‘शक्ति’ को साधने का उत्सव है दुर्गापूजा। हम सबकी उर्जा की इकलौती स्त्रोत है शक्ति। इसलिए हर किसी को शक्ति चाहिए। मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधार लागू करने के लिए शक्ति चाहिए। नरेंद्र मोदी को गुजरात में कांग्रेस को हराने के लिए शक्ति चाहिए। विपक्ष को सरकार गिराने के लिए शक्ति चाहिए। राबर्ट वाड्रा को अरविंद केजरीवाल से निपटने के लिए शक्ति चाहिए। रोजी और रोटी की लड़ाई में आमजन को शक्ति चाहिए। यानि सबकी व्याकुलता शक्ति के लिए है। दरअसल धारणा यह है कि गऊपट्टी में रहने वालों के पास अध्यात्म तो है पर शक्ति नहीं है। इसलिए शक्ति पाने के लिए हमारे पुरखों ने साल में दो दफा नवरात्र पूजा का विधान किया, जीवन और समाज की रक्षा के लिए। इन नवरात्रों में आमजन शक्ति के उत्सव में इस कदर विलीन होता है कि स्पर्श, गंध और स्वर सब में शक्ति को महसूस करने लगता है। दुर्गापूजा का प्राण तत्व उसका यही लोकतत्व है। एक हजार साल की पराजित मानसिकता से हममें जो शक्तिहीनता दिखी। उसी ने इस समाज में शक्ति पूजा को केंद्र में ला दिया। यह आत्महीनता की अवस्था थी। जब भगवान राम का आत्मविश्वास भी रावण के सामने डिगने लगा। वे रावण के बल और शौर्य से चकित अपनी जीत के प्रति संशयग्रस्त हो रहे थे। तब उन्होने भी ‘शक्ति पूजा’ का सहारा लिया। राम की आस्था और जनपक्षधरता को देखते हुए शक्ति ने उन्हें भरोसा दिया “होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन”। तब रावण का अंत हुआ। शक्ति असुर भाव को नष्ट करती है। चाहे वह भीतर हो या बाहर। नवरात्र में शक्तिपूजा का मतलब भी यही है कि अपनी समस्त उर्जा का समर्पण। और सबकी उर्जा का स्त्रोत एक शक्ति को मानना। बचपन से हमें यह घुट्टी पिलायी गयी थी। कि जब-जब आसुरी शक्तियों के अत्याचार या प्राकृतिक आपदाओं से जीवन तबाह होता है। तब-तब शक्ति का अवतरण होता है। पर आज की पीढ़ी के लिए शक्ति पूजा गरबा, डांडिया, जात्रा के अलावा और क्या है? पूजा के नाम पर जबरन चंदा वसूली का एक नया सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद उदित हो रहा है। जिसमें साधना गायब है। दुर्गापूजा की मौजूदा परम्परा चार सौ साल पुरानी है। बंगाल के तारिकपुर से शुरु हुई यह परम्परा जब बाहर निकली तो- बनारस पहुंची। दिल्ली में तो 1911 ई. के बाद दुर्गापूजा का आगमन हुआ जब यहां नई राजधानी बनी। बाद में आजादी की लड़ाई में पूजा पंडाल राजनैतिक गतिविधियों के मंच बने। दुर्गापूजा सिर्फ मिथकीय पूजा नहीं, यह स्त्री के सम्मान, ताकत, सामर्थ और उसके स्वाभिमान की सार्वजनिक पूजा है। जिस समाज में स्त्री का स्थान सम्मान और गौरव का होता है। वही समाज सांस्कृतिक लिहाज से समृद्ध होता है। "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी की लाचारी के बरक्स के बोले मां तुमि अवले" की हुंकार इस फर्क को साफ करती हैं तभी तो गऊपट्टी अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी की लाचारी से जूझ रही थी। और बंगाल नवजागरण का अगुवा बना। शायद तभी स्त्री की प्रखरता और ताकत का दूसरा नाम दुर्गा पड़ा। 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रखरता को देखते हुए अटल बिहारी वाजपेयी को भी उन्हें दूसरी दुर्गा कहना पड़ा था। गुरु गोविन्द सिंह ने भी युद्ध से पहले शक्ति की आराधना की थी। सिखों की अरदास, शक्ति पूजा से ही शुरू होती है। "प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरुनानक लई धिआई।"(अर्थात मैं उस मां भगवती को सिमरण करता हूं जो नानक गुरू के ध्यान में आई थी) गुरु गोविन्द सिंह चण्डी को आदिशक्ति मानते थे। दुर्गापूजा की ऐतिहासिकता बंगाल से जुडी है। वहां पूजा के दौरान माहौल देख लगता है जैसे समूचे बंगाल के शरीर में देवी आ गयी है। इसीलिए बंगाल में पूजा परंपरा से जुडी रहने के बावजूद नवजागरण का हिस्सा रही। हालांकि नवजागरण आधुनिक आन्दोलन की चेतना है और दुर्गापूजा इसके ठीक उलट परंपरा। ठीक वैसा ही महत्व जैसे महाराष्ट्र में नवजागरण में तिलक महराज की गणपति पूजा का या फिर उत्तर भारत में डॉ. लोहिया के रामायण मेले का। तीनों ने समाज में एक सी जागरूकता पैदा की। सांस्कृतिक स्तर पर तिलक और लोहिया दोनों की जडें आधुनिक थीं। और पारंपरिक भी। तीनों पूजाओं का चलन आधुनिकता में परंपरा के बेहतर प्रयोग था। दुर्गा अवतार की कथा के मुताबिक असुरों से परेशान सभी देवताओं के तेज से प्रजापति ने दुर्गा को रूप दिया। जिसने अपने पराक्रम से असुरों का समूल नष्ट किया। देवताओं के इस सामूहिक प्रयास की शक्ति असीम थी। वैदिक वांगमय में शक्ति के कई नाम हैं। वाग्देवी, पृथ्वी, अदिति, सरस्वती, इड़ा, जलदेवी, रात्रिदेवी, अरण्यानी, उषा जैसे नाम मिलते हैं। इसके अलावा जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आदि देवियां भी मिलती हैं। नवरात्र यानी नौ पावन, दिव्य, दुर्लभ शुभ रातें। वासन्तिक और शारदीय नवरात्र जन सामान्य के लिए है। और आषाढ़ीय तथा माघीय नवरात्र गुप्त नवरात्र है। यह सिर्फ साधकों के लिए है। पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती के नौ स्वरुप ही नवदुर्गा है।मेरे बचपन में दुर्गापूजा और दशहरे का मतलब था। शिखा में नवांकुर (अन्न के) बांधना। हमें शिखा नहीं थी तो कान पर रखा जाता था। नीलकंठ देखना और रावण जलाना। नीलकंठ अब दिखते नहीं। शिखा सबकी लुप्त है। और रावण बार-बार जलने के बाद फिर पैदा हो जाता है। वह अनंग है। अंग रहित। इस अनंग से लड़ने की शक्ति हमें मिले। यही शक्ति साधना के मायने हैं।[दखल]