प्रकृति के दर्शन हों, कांक्रीट के नहीं
एम.एन. बुचराज्य सरकार द्वारा भोपाल में बहुमंजिला भवनों के निर्माण के लिए भूमि विकास नियमों में संशोधन के प्रस्ताव का पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी एम.एन. बुच ने विरोध किया है । इस मुद्दे पर उन्होंने आवास एवं पर्यावरण विभाग के प्रमुख सचिव इकबाल सिंह बैस को पत्र लिखा है । उन्होंने इसकी प्रतिलिपि मुख्यमंत्री को भेजने के साथ ही मीडिया को भी जारी की है । उन्होंने विभन्न कारण और उदाहरण देते हुए इस प्रस्ताव को खारिज करने का अनुरोध किया है । बुच द्वारा लिखा गया पत्र यहाँ प्रस्तुत है । मैंने एकाध अखबार में छपी खबर पढ़ी कि आप भूमि विकास नियमों में संशोधन करके भोपाल में दस मंजिल तक के भवन बनाने की अनुमति देने जा रहे हैं । इससे मुझे कुछ चिंता हुई, जो मैं आपके समक्ष रखना चाहता हूँ । भवन की ऊंचाई का सीधा संबंध एफएआर, स्थापित घनत्व और भूखण्ड के कितने हिस्से पर निर्माण हो सकता है, से है । जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने चाहा था कि दिल्ली में केवल ऊंची इमारतें बनें और वह भी २.५० के एफएआर पर । इसमें उन्होंने शर्त रखी कि भवन भूखण्ड के केवल १० प्रतिशत भाग में बनेगा व ९० प्रतिशत जगह खुली रहेगी । पार्किंग भी भवन के अन्दर ही होगी, जिससे खड़ी हुई गाड़ियां नजर न आएं । मैने जब उन्हें समझाया कि अगर १० हजार वर्गफीट का भूखंड है तो २.५० एफएआर के आधार पर उस पर २५ हजार वर्ग फीट निर्माण करने की अनुमति होगी, अर्थात २५ मंजिल भवन । चूँकि १० हजार वर्ग फीट के भूखंड के केवल १००० वर्गफीट क्षेत्र पर निर्माण हो सकेगा, क्योंकि ९० प्रतिशत भूखंड खाली रखना होगा । इसका अर्थ यह हुआ कि २५० फीट ऊंचाई की इमारत केवल १००० वर्गफीट की नींव पर बनेगी, अर्थात यह कुतुबमीनार नुमा खंभा होगा, रिहायशी भवन नहीं । यह बात राजीव गांधी ने समझी और उन्होंने इस मामले में कोई भी औपचारिक आदेश पारित नहीं किए । भूमि विकास नियमों में जिन संशोधनों की बात हो रही है, उनमें जो वर्तमान में आवासीय क्षेत्रों के लिए ०.७५ से लेकर १.२५ तक का एफएआर है क्या आप उसे बढ़ाऐंगे ? क्या आप घनत्व पर नियंत्रण हटा लेंगे ? भूखण्ड के कितने भाग पर निर्माण होगा ? मुंबई एवं ठाणे में महाराष्ट्र सरकार ने ११.५० तक का एफएआर निर्धारित किया है । इस कारण रिहायशी क्षेत्रों का घनत्व इतना बढ़ गया है और वाहनों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई है कि वहाँ आठ लेन के मुख्य मार्ग भी वाहनों से ठसाठस भरे रहते हैं और गाड़ियों का चलना मुश्किल हो गया है । जब हम भवन निर्मित करते हैं, तब केवल इतारम का प्रश्न नहीं होता । इमारत से निकलने वाले वहनों के लिए सड़क चाहिए व इस कारण इमारत के साथ-साथ सड़क की भी योजना बननी चाहिए । जैसे-जैसे किसी क्षेत्र में निवास कर रहे लोगों की संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे जलप्रदाय, मलवहन इत्यादि अधोसंरचना को भी नियोजित रूप से बढ़ाना पड़ता है । ऊँची इमारत में केवल सीढ़ियाँ चढ़कर नहीं जाया जा सकता, इस कारण लिफ्ट लगानी पड़ती है, जिससे बिजली की खपत बढ़ती है । भवन में पानी चढ़ाने के लिए भी विद्युत पंप का उपयोग करना पड़ता है । ऊँची इमारतों में मौसम से बचने के लिए बरामदे इत्यादि नहीं बनाए जा सकते और इस कारण उन्हें वातानुकूलित करना पड़ता है । इसके लिए भी उर्जा की आवश्यकता होती है । ऐसे भवन ज्यादातर कांक्रीट के होते हैं और यदि इसमें आग लग जाए तो लकड़ी तो फिर भी बच जाएगी मगर कांक्रीट का लोहा पिघलेगा, जिस कारण कांक्रीट के भवन आग के समय सबसे अधिक खतरनाक होते हैं । वैसे भी मध्यप्रदेश में अग्निशमन सेवाओं की स्थिति दयनीय है व इस कारण अधिकांशतः भवन सुरक्षित नहीं है । कुछ वर्ष पहले मैने इंदौर के कुछ भवनों का सर्वेक्षण किया था और पाया कि एक भी भवन अग्नि सुरक्षा के पैमानों पर खरा नहीं उतरा । मेरा कहने का अर्थ यह है कि यदि हम ऊँचे भवन बनाना चाहते हैं, तो हमें बहुत सी जमीन सार्वजनिक उपयोग के लिए खुली रखनी पड़ेगी और इस कारण जहाँ उन भूखण्डों का घनत्व बढ़ेगा जहाँ ऊँचे भवन बने हैं, वहीं जमीन की बचत नहीं होगी क्योंकि सार्वजनिक उपयोग की भूमि बढ़ेगी । भूमि की बचत तभी हो सकती है, जब हम ऊँचे भवन बनाते समय घनत्व को अपरिहार्य रूप से बढ़ाएं, यातायात की ओर कोई ध्यान न दें और इस प्रकार से एक नगरीय नर्क निर्मित करें । मध्यप्रदेश में भूमि का अभाव नहीं है और यदि हम मुंबई के टापू को आदर्श मानते हुए यहां निर्माण करते हैं तो हम वास्तव में अभागे हैं । वैसे भी भोपाल का प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा है कि यहां प्रकृति के दर्शन होने चाहिए और न कि कांक्रीट के जंगल के । (दखल)