साइज़ ज़ीरो संघी वाया ख़ाकी नेकर !
साइज़ ज़ीरो संघी वाया ख़ाकी नेकर !
रवीश कुमार दिल्ली आने से पहले हाफ पैंट का इतना सामाजिक चलन नहीं देखा था । नब्बे के दशक में दिल्ली में एंट्री मारते ही लगा कि लोग सड़कों पर फ़ुल पैंट पहनते हैं मगर छतों पर हाफ पैंट का क़ब्ज़ा हो चुका है । गोविंदपुरी की छतों पर आने वाले मर्द हाफ पैंट और औरतें मैक्सी में ही नज़र आती थी । उदारवादी अर्थव्यवस्था की प्रथम संतानों ने कूलर और एसी के विकल्प के तौर पर हाफ पैंट और मैक्सी का ही इस्तमाल किया । नाइसिल पाउडर और कोक पेप्सी के बाद गर्मी से लड़ने के लिए हाफ पैंट और मैक्सी ने दिल्ली की मानव सभ्यता का बहुत साथ दिया । हाफ पैंट शब्द का इस्तमाल हम बिहारी लोग करते थे, दिल्ली वाले नेकर, निक्कर या निकर या शाट्स बोलते थे । थे क्या, आज भी बोलते हैं ।मैंने नब्बे के दशक की दिल्ली देखी है इसलिए अगर नेकर और मैक्सी का आगमन पहले हो चुका होगा तो ‘बाइनरी’ के इतिहासकार मुझे माफ करेंगे । ऐसा नहीं था कि नेकर और मैक्सी का प्रतिरोध नहीं हो रहा था । दिल्ली आकर हम किरायेदार भी सफेद पजामे की जगह हाफ पैंट की शरण में आ गए । जितनी तेज़ी से हाफ पैंट को स्वीकार किया वो संकेत था कि हम उदारवादी व्यवस्था के लिए मानसिक ही नहीं सांस्कृतिक रूप से भी तैयार हैं । हाफ पैंट को लेकर बाहरी मर्द और पारिवारिक मर्द का भेद भी जल्दी मिट गया । गोविंदपुरी के मकान मालिक शर्मा जी ने मेरे उदारवादी पहनावे को लेकर आपत्ति जताई कि आप रात को छत पर चटाई बिछा कर क्यों सोते हैं । हमने कहा कि एस्बेस्टस का कमरा काफी गरम हो जाता है । शर्मा जी ने फ़रमान के लहज़े में कह दिया कि घर में औरतें हैं । आप हाफ पैंट में बाहर मत निकलिये । शर्मा जी ख़ुद हाफ पैंट में थे ।धीरे धीरे नेकर को लेकर बचा खुचा सांस्कृतिक प्रतिरोध कमज़ोर पड़ने लगा और जनपथ पर बिकने वाला नेकर लोकप्रिय होता चला गया । दिल्ली के जनपथ मार्केट का टी शर्ट और नेकर के प्रसार में बहुत योगदान है । पच्चीस पच्चीस चीख़ चीख़कर वहाँ के विक्रेताओं ने पूरे भारत में टी शर्ट और नेकर का विस्तार किया है । उसके बाद सरोजिनी मार्केट का स्थान आता है । जनपथ के टीशर्ट की एक अजब ख़ूबी हुआ करती थी । मैंने पहली बार देखा कि आदमी के बड़ा होने से पहले ही कपड़ा सिकुड़ कर छोटा हो जाता है । नेकर की सिलाई की कमज़ोरी से लगता था कि सिलने से ज़्यादा बेचने की जल्दी है । कब कहाँ से सिलाई खुल जाये पता नहीं होता था । फिटिंग ऐसी होती था कि कमर बायें की तरफ लचकती थी तो हाफ पैंट का घेरा दायीं तरफ लचक जाता था । ये विज्ञान के किस नियम के तहत होता था आज तक पता नहीं कर सका ।इसके बाद अच्छी सिलाई और फिटिंग वाले हाफ पैंट का चलन आया । इन्हें शाट्स कहा जाने लगा । इनका रंग भी ख़ाकी का ही होता था पर किसी को देखकर नहीं लगा कि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेकर है या पुलिस का है । बल्कि ऐसे ख़ाकी शाट्स हमने सबसे पहले लेफ़्ट के विद्वानों को ही पहने देखा ! बड़े बड़े ब्रांड वाले स्टोर में शाट्स को जगह मिलने लगी। लोग शाट्स पहनकर यहाँ वहाँ नजर आने लगे ।छुट्टी के दिनों में शाट्स और फ़्लोटर चप्पल पहनकर लोगों ने खुशी खुशी जता दिया कि वे भारत की अतीत वाली तमाम अर्थव्यवस्थाओं से संबंध विच्छेद करने में संकोच नहीं करते । बड़ी संख्या में लोग शाट्स पहनकर हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन पर नज़र आने लगे । कुछ लोगों ने गोवा को शाट्स की राजधानी समझा और गोवा जाने से पहले शाट्स की ख़रीदारी जरूर की । पटना जाने वाली ट्रेन में भी लोग टी शर्ट और शाट्स में नज़र आने लगे मगर बाकी सवारी उन्हें हाईब्रिड ( मिश्रित ) नागरिक के रूप में देखते थे । शाट्स में देखते लगता था कि बोध गया जाने वाला कोई विदेशी तो नहीं मगर शक्ल से बिहारी जानकर सदमा लग जाता था । पुरातनपंथी सोचने लगते थे कि एकदम से ख़त्म हो गया है का । वैसे वहाँ भी अब शाट्स घर घर की कहानी है ।नब्बे के दशक में हम जिस बिहार से आए थे वहाँ लोग नीचे हाफ पैंट नहीं पहनते हैं पर ऊपर से हाफ या साफ हो जाते हैं । गर्मी के दिनों में हमारे प्रदेश ( बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश भी) के लोग ऊपर कम ही पहनना पसंद करते हैं । गर्मी के दिनों में लगता है कि सारी क़मीज़ें कहाँ चली जाती होंगी। घर आते ही क़मीज़ और पतलून को उतारा नहीं जाता है बल्कि फेंका जाता है । लोग लुंगी का घेरा कसते हुए मोहल्ले के बीच में आ जाते थे । जैसे दफ्तर जाना पतलून पहनने की सज़ा काटना होता हो।जल्दी से लोग बनियान में आ जाते है ।बंगाल और बिहार के लोग बनियान को अंग्रजी में गंजी कहते हैं ! हर कोई अपनी गंजी को पहले दिन के जैसा सफेद देखना चाहता है । गंजी को सफेद रख पाने की नाकामी या सदमा नहीं झेल पाते हैं तो नील से नीला करने लगते हैं । मैं इसका भी वैज्ञानिक कारण नहीं पता लगा सका कि लोगों को नीले में सफेद कैसे नज़र आता है । अंत में जब हर बनियान को नीला ही होना है तो नीला बनियान ही क्यों नहीं बिकता । सबसे ज़्यादा सफेद क्यों बिकता है ।मुझे हाफ पैंट के माँ बाप यानी मूल का पता नहीं लेकिन लगता है कि भारत में यह बरतानिया हुकूमत के दौर में आया । ब्रिटिश पुलिस अफसर और सिपाही दोनों हाफ पैंट पहनते थे । आजादी के बाद हमारे देश में हाफ पैंट बच्चों के स्कूल यूनिफार्म से प्रचलित हुआ है । घरों में ज्यादातर हाफ पैंट फ़ुल पैंट से ही पैदा होते थे । फ़ुल पैंट छोटा होते ही घर परिवार में किसी के लिए हाफ पैंट बन जाता था । ओरजिनल हाफ पैंट की सिलाई कम होती थी इसलिए बेहतरीन हाफ पैंट सिलने वाले कम ही हुए हैं । संस्कृति के हिसाब से धोती और लुंगी भारतीय लगती है । अमीर और मध्यमवर्गीय तबके में इन्हें कोई पूछने वाला नहीं है । वहाँ लोग अब ट्रैक पैंट पहनने लगे हैं !सुन रहा हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने हाफ पैंट को लेकर विचार कर रहा है । नेकर का रंग और साइज़ बदलना चाहता है । एक ऐसे समय में जब नेकर/ शाट्स ज़्यादा प्रचलित है और कूल है ठीक उसी समय संघ अपने इस मूल वस्त्र को बदल देना चाहता है । जबतक कोई बच्चों के अलावा नेकर नहीं पहनता था तब तक संघ वाले पहनते रहे । अब जब सब पहनने लगे हैं तो उन्हें क्यों लाज आ रही है ! क्या इसलिए कि लोग मज़ाक़ उड़ाने लगे हैं ? मज़ाक़ तो पहले भी उड़ता होगा ।ट्वीटर पर मैंने देखा कि कई लोग नेकर को लेकर तरह तरह की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं । संघ का विरोध तो समझ आता है लेकिन विरोध में सनकना मुझे कूल नहीं लगता । क्या ये लोग सारे हाफ पैंट के बारे में वही राय रखते हैं जो संघ के नेकर के बारे में रखते हैं ? संघ के सारे विरोधी सस्ते में छूट जाना चाहते हैं । कुछ प्रतिकात्मक मसलों पर विरोध जताकर मौज करने लगते हैं । संघ का विरोध करना है तो उसके बारे में जानिये, समय निकाल कर पढिये । उतनी मेहनत कीजिये जितनी मेहनत संघ अपने प्रसार के लिए करता है । संघ का संगठन या उसकी विचारधारा हाफ पैंट में नहीं हैं ।अर्ध- पतलून ( हाफ पैंट अंग्रेजी है, पतलून ?) का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं या उसकी खराब फिटिंग का ? मुझे नहीं पता कि संघ के कार्यकर्ताओं को मुख्यालय से हाफ पैंट की सप्लाई होती है या वे जहाँ तहाँ से सिलवा लेते हैं । जैसा कि मैंने कहा कि मूल रूप से हाफ पैंट सिलने वाले दर्ज़ी कम होते हैं इसलिए फिटिंग की ऐसी तैसी हो गई है । स्कर्ट सिलने का हुनर हाफ पैंट की सिलाई में आज़माने से कई हाफ पैंट स्कर्ट जैसे हो गए । संघ इस कमी को आसानी से दूर कर सकता है। खादी भंडार से सीख सकता है । इसी देश में खादी के कपड़ों की ख़राब फिटिंग की समस्या को दूर कर फ़ैशनेबल बनाया गया है ।मेरी राय में अगर संघ ने हाफ पैंट का रंग या हाफ पैंट बदलने का फ़ैसला किया तो यह उसकी हार होगी । उसकी प्रतिबद्धता की हार होगी । भले ही नेकर उसकी विचारधारा का प्रतीक नहीं है लेकिन प्रतिबद्धता का तो है ही । आखिर संघ उन लोगों को क्या जवाब देगा जो वर्षों से उसी बदरंग और खराब फिटिंग वाले निकर में शाखा लगाते रहे । क्या संघ उनके शारीरिक बेडौलपन को भी लेकर शर्मिंदा होने लगेगा ? क्या ‘साइज़ ज़ीरो संघी’ को ही शाखा के लिए योग्य माना जाएगा ?नोट: इस लेख के प्रकाशित होने के बाद ख़बर आ गई कि संघ ने हाफ पैंट को फ़ुल करने का फ़ैसला किया है । संघ को प्रचार प्रमुख एम जी वैद्य ने कहा है कि नब्बे साल में सिर्फ संघ की टोपी नहीं बदली है । 2010 और 2015 में गणवेश बदलने पर विचार हुआ था । संघ का कहना है कि वक्त के साथ बदलते रहेंगे । कभी क़मीज़ भी ख़ाकी हुआ करती थी जिसे 1939 में सफेद कर दिया गया । पहले पतलून ही था जिसे बाद में निकर कर दिया गया ।[ रवीश कुमार के ब्लॉग से ]
Dakhal News 22 April 2016

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