विरोधी विचारों से क्यों डरता है संघ?
अवधेश बजाजहैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमूला और अब जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कन्हैया कुमार में क्या समानता है? सिर्फ एक। दोनों संघ के विचारों के खिलाफ थे। दोनों ही संघ के छात्र संगठन एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के निशाने पर थे। नतीजा यह हुआ कि एक ने खुदकुशी कर ली। दूसरा देशद्रोह के आरोप में जेल में है। यह देखकर सिर्फ एक सवाल उठता है क्या विरोधी विचारों से डरता है संघ?संघियों को यह समझना होगा है कि विश्वविद्यालयों में हिटलर भी पढ़ाया जाता है, मुसोलिनी भी। गांधी भी किताबों में हैं तो हेडगेवार भी। लेकिन क्या इन अलग-अलग विचारों को पढऩे या पढ़ाने या चर्चा या बहस का मुद्दा बनाने से हमें डरना चाहिए? नहीं। पठन-पाठन और अध्ययन में तो सभी विचार आएंगे ही। विचारों की भट्टी में तपकर ही तो आखिर छात्र अच्छे-बुरे को करीब से समझ पाएंगे। विश्वविद्यालय के नाम में ही निहित है, विश्व का विद्यालय यानी तमाम विश्व की समझ रखने और बनाने की जगह। वह भी विचारों पर तार्किक अध्ययन, बहस, चर्चाओं के जरिए। कोई भी विRSSचार निराधार नहीं होता। सबका अपना आधार होता है। जेएनयू में कश्मीर की आजादी के नारे लगे तो उनके पीछे भी कोई वजह रही होगी। यहां बात अच्छे-बुरे की होती ही नहीं, बल्कि हर विचार को समझने की होती है। विश्वविद्यालय से निकलकर ही तो कोई छात्र अच्छे या बुरे के लिए अपनी समझ को परिपक्व बनाता है। यदि स्वच्छंद और आजाद विचारों पर अपने कथित राष्ट्रवाद का बोझ डाल दोगे तो उसमें स्वच्छंद अभिव्यक्ति कहां रह जाएगी।जेएनयू में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की बरसी के संवाद को व्यापक नजरिए से देखने की जरूरत है। संघ जिस राष्ट्रवाद के विचार को मानता है वह भी तो कहीं न कहीं बहस और चर्चा के यज्ञ का ही फल होगा। विश्वविद्यालय में विचारों का समुद्रमंथन होता है। मंथन की कई बरस चलने वाली प्रक्रिया ही अमृत देती है। यही अमृत समाज को नई दिशा देता है। समाज की बुराइयों को दूर करता है। लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि समुद्रमंथन में सिर्फ देवों का योगदान नहीं था। दानव भी बराबरी से शामिल थे। निष्पक्ष, स्वच्छंद विचारमंथन तभी हो सकता है, जब सभी तरह के विचार सामने आएं। तर्क-कुतर्क सब आएंगे। इसके लिए संवाद जरूरी है। ये सब विश्वविद्यालय में तभी हो सकता है जब सरकार उन्हें स्वतंत्र छोड़े। अपनी विचारधारा को थोपे नहीं। बल्कि अकाट्य तर्कों के जरिए सामने रखे जाए। तभी तो उन्हें सर्वसम्मति मिलेगी। लेकिन विरोधी आवाज को दबोना किसी भी लहजे से स्वस्थ लोकतंत्र नहीं हो सकता। जेएनयू प्रकरण को ही लो, ऐसा लगता है कि दूसरे पक्ष की सुनने ही नहीं देना चाहते। यदि अफजल गुरु के पक्ष में नारे लगे तो एक तथ्य यह भी है कि गुरु को कश्मीर के अलगाववादी अपने स्वतंत्रता संग्राम का नेता मानते हैं। ठीक वैसा, जैसा हम भगत सिंह को मानते हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में तो कई नेताओं ने खुलकर गुरु की फांसी का विरोध किया था। ऐसे में क्या विरोध करने वाला हर विधायक देशद्रोही था?क्या सरकार या सत्ता पक्ष की बात से सहमत न होने वाला हर शख्स और विचार देशद्रोही है। हमारे देश ने कई वैचारिक नेता दिए। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद… जैसे नेताओं ने अपने विचारों से न केवल अपने देश में बल्कि दुनिया के हर देश में अपने लिए खास पहचान बनाई। ऐसी छवि जो विरोधियों को भी उनके सामने झुकने को मजबूर करती है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरन गांधी विरोधी तो नहीं हैं, लेकिन उनके ही पूर्वजों ने बापू को दबाने में कोई कमी छोड़ी थी क्या? पिछले साल जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिटेन में थे तो गांधी प्रतिमा के आगे सिर नवाते कैमरन की तस्वीर तकरीबन सभी अखबारों के पहले पेज पर थी। क्या यह तस्वीर गांधीजी के विचारों की जीत का प्रतीक नहीं थी?विश्वविद्यालय ज्ञान के मंदिर हैं। सिर्फ वह ही ऐसी जगह है जहां हर विषय के हर पहलू पर चर्चा संभव है। तो रोका क्यों जा रहा है? बात सिर्फ 9 फरवरी को जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों की नहीं है। वह एक सत्ताविरोधी कार्यक्रम था। वहां विरोधी पक्ष बात कर रहा था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और देशद्रोह की संवैधानिकता पर जाएंगे तो बात लंबी चली जाएगी। हाथ कुछ नहीं आएगा। फिर भी संघियों से यह सवाल जरूर पूछना चाहूंगा कि वह भारत में कैसे नागरिक चाहते हैं? क्या उन्हें देश के भावी नागरिक ऐसे चाहिए, जो उसके कथित राष्ट्रवाद का अंधानुकरण करें। एक फांसीवादी, तानाशाही प्रवृत्ति को ही अपनाए। विमर्श छोड़ दें। वहीं सोचे, पहने और ओढ़े जो संघ चाहता है। एक अवधि तक यह जरूर काम कर जाएगा। लेकिन स्वच्छंद विचार नहीं आए तो संघ खुद तो आउटडेटेड हो ही जाएगा, भारतीयों को भी कर देगा। तब लोगों के पास क्रांति के सिवा कोई विकल्प न होगा।संघ विरोध शब्द से ही डरता है। जहां भी विरोधी स्वर उठते हैं, दबाने की कोशिशें तेज होती हैं। हम उन बयानों को नहीं भूले हैं जब मोदी का विरोध करने वालों को पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दी जा रही थी। उस समय भाजपा नेतृत्व ने ऐसे बयान देने वालों को रोका नहीं। बढ़ावा दिया। पुरस्कार में मंत्री पद दिया। यही वजह है कि ऐसी सोच बढ़ती जा रही है। जवाब देना तक सरकार और संघ के लिए मुश्किल होता जा रहा है। विचारधारा कोई भी हो, उसमें बदलाव सहने, समझने और उसके अनुरूप खुद को ढालने का माद्दा होना जरूरी है। संघ को वैचारिक विरोध के प्रति सहिष्णुता रखनी होगी।असहिष्णुता पर छिड़ी बहस बिहार में बीजेपी के लिए नुकसानदायक साबित हुई। जंगलराज और मंडलराज जैसे डरावने नारे भी काम न आए। केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में चुनाव है। वहां जनाधार बढ़ाने में देशद्रोही बनाम देशभक्त की बहस काम तो आ सकती है, लेकिन सत्ता में नहीं ला पाएगी। संसद में तो नुकसान ही उठाना पड़ेगा। आर्थिक सुधारों की गाड़ी दो सत्रों से जस की तस खड़ी है। हंगामे की वजह से न तो जीएसटी पर बात बनी और न ही रियल एस्टेट बिल आगे बढ़ पाया। यदि संघ परिवार के सदस्य इसी तरह अडिय़ल रुख दिखाते रहे तो लगता नहीं कि मोदी पांच साल में भी कुछ कर पाएंगे।[बिच्छू डॉट कॉम से ]