रंग-प्रशिक्षण में मध्यप्रदेश की बढ़ती भूमिका
रंग-प्रशिक्षण में मध्यप्रदेश की बढ़ती भूमिका
आलोक चटर्जीबीते दस सालों में युवा पीढ़ी में बड़ी संख्या में रंगमंच और कलाओं की ओर झुकाव हुआ है। यह खुशी की बात है कि रंगमंच अब मात्र शौक के लिए नहीं बल्कि, प्रोफेशन और व्यक्तित्व के सर्वागींण विकास के लिए एक कैरियर आॅप्शन के रूप में स्वीकृत हुआ है। जैसे पहले कहते थे कि- पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब। लेकिन सचिन तेंदुलकर और वाइचिंग भूटिया, सानिया मिर्जा और सानिया नेहवाल जैसे क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस और बैडमिंटन जैसे खेलों के सितारा खिलाड़ियों के कारण माता-पिताओं ने भी इसे अपनी संतान के लिए एक कैरियर आॅप्शन माना। और आज हम देश में खिलाड़ियों के साथ फीजियो, कोच, डॉक्टर, साइकेट्रिक्स न्यूट्रीशियन जैसे एक्सपर्टस् के लिए विभिन्न कोचिंग संस्थानों की और पाठ्यक्रमों की भी आवश्यकता होगी। अब खेल मात्र मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि लंबी तैयारी, प्रशिक्षण और एक समूचे शास्त्र के साथ सोच समझकर खेलने की आवश्यकता होती है। तब करोड़ों लोगों के इस देश में कुछ लोग लाईम लाईट में आ जाते हैं, पर जैसे खिलाड़ियों की सफलता के पीछे कैरियर में उनके कोच की भूमिका निर्णायक और महत्वपूर्ण होती है। ऐसा ही पिछलेदशक में नाटक के क्षेत्र में भी घटित हुआ है। देश के कुछ नए रंग-प्रशिक्षण संस्थानों के विषय में। बात करें तो नए रंग प्रशिक्षण संस्थान पिछले पांच वर्षों से कला जगत के क्षितिज पर धूमकेतु के तरह चमके हैं। इनमें सबसे पहले नाम आता है मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल का। यहां से अभी तक तीन बैच प्रशिक्षित होकर बाहर निकल चुके हैं, और नए चौथे बैच के सत्र का यह प्रथम सप्ताह चल रहा है। इन बीते वर्षों में यहां से निकले हुए रंगकर्मी छात्र-छात्राओं ने बहुत अच्छा काम किया है। प्रथम बैच से दो, द्वितीय बैच से एक, तृतीय से एक, छात्र-छात्राओं का चयन दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुआ है। इसके अतिरिक्त चंडीगढ़, हिसार, बेगूसराय, धनवाद जैसे दूरस्थ स्थानों से लेकर मध्यप्रदेश के होशंगाबाद, गुना, भोपाल, छतरपुर, सागर, इंदौर में अपनी कार्यशालाएं और प्रस्तुतियां दी हैं, और दर्शकों द्वारा सराही भी गई है। विगत वर्षों में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय में देश के शीर्शस्थ रंगकर्मियों ने अपनी आमद दर्ज करायी है, और विद्यालय के छात्रों ने भोपाल में अपनी प्रस्तुतियों के दौरान भवभूति, शूद्रक, शेक्सपियर, मालवी, बुन्देली, निमाड़ी लोक नाट्यों पर आधारित नाट्य प्रस्तुतियां मंच पर प्रदर्शित की हैं। इसके बाद नाम आता है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली द्वारा खोले गए सिक्किम का गंगटोक नाट्य प्रशिक्षण केन्द्र जो एक वर्षीय पाठ्यक्रम संचालित करता है। यहां प्रस्तुतियां नेपाली भाषा में होती हैं, और विद्यालय में विद्यार्थियों के चयन के समय वहां के स्थानीय रंगकर्मियों के लिए पैंसठ से सत्तर प्रतिशत तक आरक्षण का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और दिल्ली से भी वहां विद्यार्थी जाते हैं। तीसरा नाम है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा ही खोले गए अगरतला नाट्य प्रशिक्षण संस्थान त्रिपुरा का। यहां भी एक वर्षीय पाठ्यक्रम संचालित होता है एवं स्थानीय के अतिरिक्त अन्य राज्यों के भी युवा यहां आवेदन करते हैं। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय में आवेदन लगभग दस से बारह राज्यों से आते हैं, जाहिर है तीनों ही रंग संस्थानों में चयन हेतु प्रतियोगात्मक परीक्षा आयोजित होती है और मैरिट के आधार पर अंतिम चयन होता है। जाहिर है इन तीनों संस्थानों को चलाने के लिए मात्र तकनीकी या आॅफिस का स्टाफ ही काफी नहीं है बल्कि उसकी मूल शक्ति और प्राण है, फैकल्टी। वो लोग जो प्रशिक्षण देने के लिए जिम्मेदार होते हैं, वे अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं और दशकों का कार्यानुभव उनके साथ जुड़ा होता है। जाहिर है ये युवा छात्र-छात्राओं को वैसे ही सींचते और बड़ा करते हैं जैसे एक माली अपने बगीचे के प्रत्येक पौधे, फल और फूल का ध्यान रखता है। ये लोग ही छात्र-छात्राओं के आंतरिक व्यक्तित्व का विकास करने में एक प्रेरक, उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। रंग सिद्धांत के जानकार विशेषज्ञ देश और विशेष रूप से हिन्दी क्षेत्र में बहुत कम हैं। ये नाट्य इतिहास सभ्यताओं के साथ, उनका मानव समाज से क्या रिश्ते और अर्न्तसंबंध हैं, इसे पूरे अर्थ के साथ विद्यार्थी के मस्तिष्क में स्थापित करते हैं। प्रशिक्षण और पूर्वाभ्यास के दौरान मंच सज्जा विशेषज्ञ, रूपसज्जा विशेषज्ञ, प्रकाश और ध्वनि विशेषज्ञ, फिजीकल ट्रेनर, योगा, ताइची, कल्लरी, थांगटा, लाठी युद्ध और अखाड़ा का प्रशिक्षण देने वाले प्रोफेसनल विशेषज्ञों की आवश्यकता पढ़ती है। इनमें से प्रत्येक विभाग की अपनी महत्ता और होती है और इनके बिना सफल नाट्य प्रस्तुति की कल्पना नहीं की जा सकती। मंच सामग्री बनाने वाले से लेकर कॉस्ट्यूम सिलने वाले दर्जी तक की यहां प्रोफेशनल आवश्यकता पढ़ती है। जाहिर है देश में अभी रंग प्रशिक्षण संस्थानों के लिये एक नई संभावना बन पढ़ी है और इन कार्यों को करने वालों के लिये एक नया द्वार खुल गया है, जहां वे अपने सीखे को सिखाकर प्रदर्शन के रूप में एप्लाइड आर्ट में बदल देते हैं। अलग-अलग विषयों को पढ़ाने वाले विशेषज्ञों की आवश्यकता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्योंकि हम अक्सर यह पाते हैं, कि देश के विभिन्न नगरों में आये दिन फिल्म ट्रेनिंग संस्थान खुल रहे हैं, एक्टिंग स्कूल खुल रहे हैं, जहां विद्यार्थियों से भारी भरकम फीस बसूली जाती है और उन्हें सुनहरे कैरियर के सपने दिखाये जाते हैं। दो तीन नामों को जोड़कर इन संस्थानों को चलाने वाले लोग, इस पवित्र और महती कार्य का घोर बाजारीकरण कर रहे हैं। जहां अच्छी फैकल्टी ही न हों वहां अच्छे से अच्छा विद्यार्थी जाकर क्या सीख पायेगा? मात्र बड़े विज्ञापन, भव्य परिसर, विशाल बिल्डिंग, यूनिफार्म पहने नौकर-चाकर और गाड़ियां रखने से कोई संस्थान नहीं चलता, क्योंकि ये ज्ञान, तपस्या और साधना की भूमि है। आज का युवा बहुतेरा भ्रम जाल को समझ नहीं पाता है, और प्रशिक्षण और कैरियर की एक विकट भूल-भुलैया में जा फंसता है। हमारे देश और प्रदेश में कला और संस्कृति के विकास के लिये अनेकों शासकीय संस्थान और पाठ्यक्रम संचालित हैं। यहां आवेदन भी ग्रेजुएट होने के बाद ही किया जा सकता है। अधिकतर संस्थानों में न्यूनतम फीस राशि होती है और कुछेक संस्थान अपने छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति, होस्टल और मेस की भी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। जो युवा रंगकर्मी रंगकर्म को अपना जीवन कर्म बनाना चाहते हैं उन्हें उसके लिये पहले आधारभूत प्रशिक्षण कार्यक्रम से गुजरना अनिवार्य है। इसके बाद ही वे किसी बड़े राष्ट्रीय संस्थान या प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला ले सकते हैं। अन्यथा कई कुछ लोग बिना तैयारी के इन्टरव्यू के लिये उपस्थित हो जाते हैं, और उचित प्रदर्शन नहीं कर पाते, जिससे उनका चयन हो सके। साथ ही बिना बौद्धिक तैयारी के आना एक खतरनाक लक्षण है। जहां विशेषज्ञ बैठे हों, और चयन का आधार मैरिट हो वहां ये युवा कई बार बड़ी अटपटी स्थिति पैदा कर देते हैं। प्रारंभिक चयन सत्र में ही कट जाने के कारण वे अंतिम चयन सत्र में पहुंच ही नहीं पाते, किसी तरह जÞोर लगाकर पहुंच भी गये तो चार दिवसीय लंबे कार्य सत्रों में जहां सुबह 10 से शाम 6 बजे तक चयन प्रक्रिया चलती हो, वहां एक्सपोज भी व्यक्ति जल्दी हो जाता है। आधे घंटे के इन्टरव्यू देने में या दो घंटे रिहर्शल करने मात्र से यह विशेषज्ञता हासिल नहीं होती, वो होती है निरंतर अभ्यास, समयबद्ध कार्यक्रम, अनुशासित जीवन शैली, विभिन्न विशेषज्ञों का मार्गदर्शन, समर्पण की निरंतर जलती रोशनी से। जो लोग इसे शार्टकट समझकर आते हैं वे निराश हो जाते हैं, क्योंकि यह माध्यम ही शार्टकट का नहीं है। जैसे कि आपको मेडीकल, इंजीनियरिंग की पढ़ाई, प्रशिक्षण और अभ्यास तीनों करना होता है, लिखित और प्रेक्टीकल परीक्षाएं देनी होती हैं, और हर चीजÞ का ग्रेडेशन होता है, मार्किंग होती है, वैसे ही रंगमंच का क्षेत्र हैं। जो लोग इसे सिर्फ डॉयलाग बोलकर बाहवाही लूटना चाहते हैं, अखबारों में छपना चाहते हैं और मात्र अपने अपने परिचितों के बीच में प्रशंसित होने का सपना पालते हैं, दरअसल ये माध्यम उनके लिये है ही नहीं, देश में खुलते नए रंग प्रशिक्षण संस्थानों और उसमें उमड़ती युवाओं की भीड़ इसी बात की पुष्टि करती है।[दखल ]आलोक चटर्जी देश के जाने माने रंगकर्मी एवं नाट्य निर्देशक हैं।
Dakhal News 22 April 2016

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