करिश्मे की उम्मीद का करिश्मा!
करिश्मे की उम्मीद का करिश्मा!
क़मर वहीद नक़वी यह वोट बीजेपी को क़तई नहीं, केवल मोदी को है. यह वोट केवल इस उम्मीद में है कि बस मोदी में ही ऐसा करिश्मा है जो देश का भविष्य बदल देगा. यह वोट जितना एक करिश्मे की उम्मीद में है, उतना ही यह वोट पिछले तीन-चार साल की अपनी हताशाओं के ख़िलाफ़ भी है. यह वोट एक ‘लाचार’ सरकार के ख़िलाफ़ भी है….अब मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उन्होंने अपने करिश्मे की जैसी मार्केटिंग की है, उसे वह पूरा करके दिखाएँ. उधर, काँग्रेस अपने जीवन के शायद सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है. अब इस करारी हार के बाद पार्टी के लिए सबसे ज़रूरी यह है कि वह ऐसा नेतृत्व दे, जो नरेन्द्र मोदी के मुक़ाबले बड़ी लकीर खींच सके. काँग्रेस को यह काम जल्दी से जल्दी करना पड़ेगा, वरना वह जिस तेज़ी से तमाम राज्यों से ग़ायब होती जा रही है, यही हाल रहा तो कुछ सालों बाद वह केवल इतिहास की किताबों में ही दिखेगी! दूसरी तरफ़, यह चुनाव ‘आप’ के लिए भी बहुत बड़ा सबक़ है. ‘आप’ को सोचना चाहिए कि राजनीति ताश का खेल नहीं है कि ‘ब्लाइंड’ और ‘धुप्पल’ चालें चल कर देखा जाय. ‘आप’ को समझना चाहिए कि वह अब भी एक बड़ी राजनीतिक सम्भावना है, बशर्ते कि वह ‘ग़लतियाँ’ करने की अपनी लत से उबर सके!तो करिश्मे की उम्मीद में करिश्मा जीत गया! आज़ादी के बाद देश ने अपने इतिहास के सबसे बड़े करिश्मे को घटित होते हुए देखा. आँकड़े आ चुके हैं, कहानी साफ़ है. अब इससे इनकार नहीं हो सकता कि यह लहर नहीं, मोदी के करिश्मे की सुनामी थी, जिसने गठबन्धन की राजनीति के दुर्गम पहाड़ों को बहा दिया, काँग्रेस का कचूमर निकाल दिया, वाम राजनीति को अतीत बना दिया, मायावती, लालू, नीतिश, मुलायम की जातीय और बंधुआ वोट बैंक की राजनीति के सारे समीकरण तहस-नहस कर डाले. बस, जयललिता, ममता, नवीन पटनायक और तेलंगाना के चन्द्रशेखर राव की क्षेत्रीय राजनीति के क़िले ही अपने आपको टिकाये रख पाये. raagdesh_करिश्मे की उम्मीद का करिश्मा! अब कोई अगर यह समझता है कि यह बीजेपी की जीत है, तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी. यह वोट बीजेपी को क़तई नहीं, केवल मोदी को है. यह वोट केवल इस उम्मीद में है कि बस मोदी में ही ऐसा करिश्मा है जो देश का भविष्य बदल देगा, विकास सरपट दौड़ने लगेगा, महंगाई डायन भाग कर कोई और घर देखेगी, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा, चीन-पाकिस्तान अपनी ‘औक़ात’ में आ जायेंगे, और सरकार सच में सरकार की तरह लगने लगेगी. और मोदी से करिश्मा कर दिखाने की इसी उम्मीद का यह करिश्मा है कि ख़ुद बीजेपी के नेता बता रहे हैं कि कई राज्यों में दलितों और मुसलमानों ने भी कमल पर मुहर लगाने का जोखिम उठाया. यह भी तब, जब चुनाव में मोदी हिन्दुत्व के तमाम प्रतीकों का चतुराई से इस्तेमाल करते रहे, अमित शाह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की इंजीनियरिंग करते रहे, गिरिराज सिंह जैसे कुछ नेता मोदी-विरोधियों को पाकिस्तान भेज देने की धमकी देते रहे, अशोक सिंहल गुजरात के भावनगर में एक मुसलमान को उसके घर में न घुसने देने के लिए तमाशा करते रहे, लेकिन फिर भी सब कुछ दरकिनार कर अगर कुछ जगहों पर मुसलमानों ने मोदी को यह कह कर वोट दिया है कि मोदी को वोट दे रहे हैं, बीजेपी को नहीं, तो इसी उम्मीद से कि मोदी ज़रूर ऐसा करिश्मा कर दिखायेंगे, जिसके सपने वह बेच रहे हैं. बहरहाल, मोदी के बहाने संघ को आख़िर वह क़िस्मत की चाबी मिल ही गयी, जिसे वह बड़ी बेताबी से तलाश रहा था! यह वोट जितना एक करिश्मे की उम्मीद में है, उतना ही यह वोट पिछले तीन-चार साल की अपनी हताशाओं के ख़िलाफ़ भी है. यह वोट एक ‘लाचार’ सरकार के ख़िलाफ़ है, जिसके राज में भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले खुलते रहे, गठबन्धन की राजनीति में फँसी सरकार फड़फड़ाती रही, कार्रवाई करे न करे, करे तो क्या और कैसे करे, महँगाई बढ़ती रही, सरकार ने उसे रोकने के लिए क्या किया, किसी को पता नहीं चला, लेकिन जले पर नमक गैस सिलिंडरों ने छिड़क दिया, चीन सीमा के अन्दर घुस आया, पाकिस्तान सीमा पर आँखे दिखाता रहा, भारतीय सेना के जवान का सिर काट लिया गया, सरकार शरीफ़ तरीक़ों से निबटती रही, जनता कुढ़-कुढ़ कर पानी पी-पी कर सरकार को कोसती रही. सरकार और काँग्रेस न सिर्फ़ हर महत्त्वपूर्ण मौक़े पर जनता से संवाद बनाने में पूरी तरह नाकाम रही, बल्कि वह जनता की भावनाओं को भी कभी पढ़ नहीं पायी. चाहे निर्भया बलात्कार कांड हो या 2011 में अन्ना का आन्दोलन, जब देश की जनता सड़कों पर उतर कर अपने आपको व्यक्त कर रही थी, सरकार अपने रवैये से, अपनी बातों से जनता को मुँह चिढ़ाती नज़र आयी. अन्ना आन्दोलन के दौरान तमाम राजनीतिक दलों के झाँसों में फँस-फँस कर सरकार जिस तरह अन्ना के साथ छल कबड्डी खेलती रही, जनता ने तभी तय कर लिया था कि आने दो चुनाव, बताते हैं! करेला और नीम चढ़ा यह कि काँग्रेसी जब बोले तो ऐसा बोले कि छाती में ख़ंजर लग जाये! वह बोले कि दिल्ली में पाँच रूपये में भरपेट खाना मिलता है, मुम्बई में बारह रुपये में और कश्मीर में तो एक रुपये में ही! आडवाणी जी ने ठीक कहा कि काँग्रेस अपने आपको हराने के लिए पिछले दो-तीन सालों से कड़ी मेहनत कर रही थी! तो काँग्रेस और मनमोहन सरकार की ‘कड़़ी मेहनत’ के मुक़ाबले जनता ने फ़िलहाल सपनों और करिश्मों की चमाचम पैकेजिंग को चुना है. अब मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उन्होंने अपने करिश्मे की जैसी मार्केटिंग की है, उसे वह पूरा करके दिखाएँ. मोदी से जितनी ज़्यादा आशाएँ हैं, उससे कहीं ज़्यादा आशंकाएँ भी हैं. उन्हें आशाएँ तो पूरी करनी ही हैं, उन आशंकाओं को भी दूर करना है, जो उन्हें लेकर अब तक व्यक्त की गयी हैं. और ये आशंकाएँ मोदी के अपने व्यक्तित्व, उनकी कार्यशैली और गुजरात के उनके अब तक के कार्यकाल में किये गये कामों को लेकर ही उठायी जाती रही हैं. संघ के एजेंडे को लेकर सवाल पहले से ही हैं. विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ परिवार के दूसरे उग्र हिन्दुत्ववादी संगठनों की क्या भूमिका होगी और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की अवधारणा को किस प्रकार और किस रूप में लागू किया जायेगा, यह देखना भी दिलचस्प होगा. दूसरी ओर, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस चुनाव में किसी न किसी रूप में देश भर में भीतर ही भीतर गहरा ध्रुवीकरण हुआ है, उसके क्या नतीजे होंगे, अभी कहा नहीं जा सकता. ख़ासकर तब, जबकि ऐसे ध्रुवीकरण से बीजेपी को ऐसे शानदार चुनावी नतीजे मिलते हों! उधर, काँग्रेस अपने जीवन के शायद सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है. 1977 में भी लगभग ऐसा ही संकट था और काँग्रेस को टूट का सामना भी करना पड़ा था. लेकिन तब दो बातें थीं. एक तो इन्दिरा गाँधी का मज़बूत नेतृत्व और दूसरी ओर कई पार्टियों के घालमेल से बनी जनता पार्टी की सरकार, जो बाद में ख़ुद अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण लुढ़क गयी. आज केन्द्र में एक अकेली पार्टी की बड़ी मज़बूत सरकार होगी, मोदी जैसे आक्रामक तेवर वाला नेतृत्व होगा और काँग्रेस किसी चमत्कारी नेतृत्व की तलाश में हाथ-पैर मार रही होगी. राहुल गाँधी के नेतृत्व को लेकर पहले ही गम्भीर सवाल उठ रहे हैं, अब इस करारी हार के बाद पार्टी के लिए सबसे ज़रूरी यह है कि वह ऐसा नेतृत्व दे, जो नरेन्द्र मोदी के मुक़ाबले बड़ी लकीर खींच सके. काँग्रेस को यह काम जल्दी से जल्दी करना पड़ेगा, वरना वह जिस तेज़ी से तमाम राज्यों से ग़ायब होती जा रही है, अगर यही हाल रहा तो कुछ सालों बाद वह केवल इतिहास की किताबों में ही दिखेगी! दूसरी तरफ़, यह चुनाव ‘आप’ के लिए भी बहुत बड़ा सबक़ है. ‘आप’ को सोचना चाहिए कि राजनीति ताश का खेल नहीं है कि ‘ब्लाइंड’ और ‘धुप्पल’ चालें चल कर देखा जाय, हो सकता है कि दाँव लग ही जाये. राजनीति में फ़ैसले सोच-समझ कर न किये जायें तो पार्टी को बड़ा ख़ामियाज़ा उठाना पड़ता है. आज यह वाजिब सवाल उठ रहा है कि अरविन्द केजरीवाल ने अपने आपको बनारस में ‘फँसा’ कर क्या हासिल किया? चुनावी नतीजों से साफ़ है कि अगर हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में पार्टी ने पूरी ताक़त झोंकी होती और बनारस में फँसने के बजाय केजरीवाल ने देश के तमाम हिस्सों में प्रचार में जान लगायी होती तो सीटें मिलतीं या न मिलतीं, लेकिन पार्टी का जनाधार ज़रूर बढ़ता. ‘आप’ को समझना चाहिए कि वह अब भी एक बड़ी राजनीतिक सम्भावना है, बशर्ते कि वह ‘ग़लतियाँ’ करने की अपनी लत से उबर सके! [दखल](साभार लोकमत समाचार)
Dakhal News 22 April 2016

Comments

Be First To Comment....
Advertisement
Advertisement

x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2025 Dakhal News.