नोटबंदी की उलझनों के आगे चुनावी राजनीति की दुश्‍वारियां
उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

चुनाव आयोग ने देश के पांच राज्यों की 690 विधानसभा सीटों के लिए मतदान कार्यक्रम घोषित कर दिया है। उत्तर प्रदेश 403, मणिपुर 60, पंजाब 117, गोवा 40 और उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के लिए अलग-अलग चरणों में 4 फरवरी से मतदान शुरू होगा, उसकी पूर्णाहुति 11 मार्च के मतगणना के साथ होगी। संविधान के नजरिए से देखें तो लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की सबसे पवित्र जनतांत्रिक-प्रक्रिया है, लेकिन जब राजनीति के तराजू पर चुनाव के मोल-भाव को देखते हैं तो यह लोकतंत्र  का सबसे वीभत्स तमाशा महसूस होते हैं। नतीजतन अब चुनाव दहशत पैदा करने लगे हैं। पहले चुनाव प्रजातंत्र के मंगलगान की तरह उत्साह पैदा करते थे, इबादत का पहला मुकाम होते थे, जनता अपने हाथों में वोट की पर्ची लेकर पांच साल तक बेसब्री से चुनाव का इंतजार करती थी। उसे लगता था कि उसके मुहर लगाने से देश की नई भाग्य-रेखाओं को नया जीवन और सहारा मिलेगा, विकास का पथ प्रशस्त होगा, प्रजातंत्र के नए प्रतिमानों का निर्माण होगा। पहले राजनीतिक दल और राज-नेता चुनाव को शुद्धिकरण का महायज्ञ मानकर आत्मावलोकन करते थे, विचारों की आहुति देते थे, राजनीतिक विचारक विकास की बुनियाद मजबूत करने के वैचारिक-मंत्रोच्चार करते थे कि गरीब की सूखी रोटी कुछ नरम और पौष्टिक हो सके।  

यह सही है कि हर चुनाव के बाद राजनीतिक पंडितों ने देश के जनादेश को सराहा है, क्योंकि विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों में  समझदारी और सूझबूझ के साथ अलग-अलग चुनावों में मताधिकार का प्रयोग करके समय के अनुसार विकल्पों को चुना है। युद्धकाल के दौरान 60 के दशक में चुनाव के नतीजों में जनता का निर्णय देश के लिए अनुकूलता का पैगाम लेकर आया था और आपातकाल में राजनीतिक-निरंकुशता को सबक सिखाने में भी जनता पीछे नहीं रही थी। देश, काल और परिस्थितियों के मान से जनादेश देने में जनता ने कोताही नहीं बरती है। शायद इसका एक कारण यह भी रहा है कि पहले राजनीति में वो ताकतें हावी नहीं थीं, जो किसी भी तरीके से सत्ता को तोते की तरह पिंजरे में कैद रखना चाहती थीं। 

पहले चुनाव देश और प्रदेश को सजाने-संवारने और बनाने के वादे होते थे, जबकि अब चुनाव की जनतांत्रिक रूह में सत्ता इस कदर हावी हो चुकी है कि देश में भला-बुरे में कोई फर्क ही नहीं बचा है। सकारात्मक और विकासशील राजनीति के तंतु इतने कमजोर पड़ चुके हैं कि चुनाव में स्याही के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। इसी तारतम्य में  2017 के पूर्वार्द्ध याने फरवरी-मार्च में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव चिंता पैदा करने वाले हैं। सपा के पारिवारिक घमासान में राजनीतिक खून-खराबे की आशंकाएं अपनी जगह हैं, लेकिन यादवी-संघर्ष में मिस्टर-क्लीन बनकर उभर रहे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राहों में सबसे बड़ी बाधा बनते नजर आ रहे हैं। उप्र-चुनाव में मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर है। सपा की गुण्डागर्दी और दबंगई के  मुद्दे को लेकर बढ़ रही भाजपा की लड़ाई को अखिलेश की यह इमेज कठिन बना रही है। भाजपा विकास को छोड़कर राम-मंदिर के पुराने मुद्दे पर लौट रही है। कैराना के साम्प्रदायिक मुद्दे की तलवार भी भाजपा ने निकाल ली है। पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहारनपुर की सभा में कैराना के बहाने मुस्लिम इलाकों से हिन्दुओं के पलायन का मुद्दा तेजाबी तरीके से उठा चुके हैं। योगी आदित्य नाथ, उमा भारती और विनय  कटियार जैसे बड़े नेता हिन्दुत्व की कमान कसकर मैदान में तैयार खड़े हैं। मायावती की चुनाव-शैली में छलकता जातिवाद का जहर जग-जाहिर है। उसी प्रकार पंजाब और गोवा में ‘आप’ पार्टी चुनावी संघर्ष की धार तेज करने के लिए पूर्णतः कटिबद्ध है। मोदी किसी भी कीमत पर उप्र को हाथ से निकलने देना मंजूर नहीं करेंगे। भाजपा नोटबंदी के फायदों को लेकर पूरी तरह आश्‍वस्त नहीं है।  इस तेजाबी मुकाबले में लोकतंत्र को फफोलों से बचाना आसान नहीं है।        

साठ दिनों से काले धन के मकड़-जाल मुसीबतों की मेहमाननवाजी से लोगों को फुर्सत मिल पाती, उसके पहले ही पांच राज्यों की 690 विधानसभा सीटों पर चुनाव के ऐलान ने पेचीदगियों का नया फंदा लोगों के गले में डाल दिया है। हवाओं का रुख स्थिर हो, उसके पहले राजनीतिक-घटनाओं के चक्रवात हवाओं को इतना धूल-धूसरित कर देते हैं कि जनता की सांसें फूलने लगती हैं। नोटबंदी के हैरतअंगेज राजनीतिक कारनामों की ऊहापोह और उलझन भरी राहों पर लंगड़ाता देश अब चुनाव की स्याह राजनीतिक-राहों की ओर अग्रसर होने के लिए बाध्य है।[लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

 

 

Dakhal News 6 January 2017

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