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राजकुमार सिंह
सांसद अनुराग ठाकुर ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को ही हिट विकेट आउट करा दिया। खुद भी डूबे, बीसीसीआई की साख को भी ले डूबे। अनिश्चिततापूर्ण क्रिकेट में भी खेल का यह नियम है कि हर पिच और गेंद का अपना अलग मिजाज होता है, इसलिए उसे भांप कर ही खेलना चाहिए। अनुराग ठाकुर और अजय शिर्के के लिए तो यह क्रिकेट प्रबंधन के कैरियर की समाप्ति ही साबित हो सकती है।
भाई-भतीजावाद से लेकर खेल के नाम पर धंधेबाजी तक से बदनाम बीसीसीआई की जो थोड़ी-बहुत साख बची थी, उसे आईपीएल के गोरखधंधे से उपजे संदेह-सवालों की जांच रिपोर्ट और उस पर सर्वोच्च अदालत की सख्ती ने बेनकाब कर दिया। खेल और खिलाड़ियों की बेहतरी के नाम पर क्रिकेट प्रबंधन पर काबिज बीसीसीआई के स्वयंभू मठाधीशों और उनके जी-हूजूर राज्य क्रिकेट संघों को लगता होगा कि स्वायत्तता और व्यावहारिकता का तर्क हर सवाल का जवाब हो सकता है, लेकिन अपने ही बुने जाल में इस कदर फंस गये कि ठाकुर का अध्यक्ष पद ही नहीं गया, अदालत की अवमानना और झूठे शपथपत्र के लिए आपराधिक मुकदमे की तलवार भी लटक गयी है।
फिर भी अनुराग ठाकुर, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि रिटायर्ड जजों की देखरेख में बीसीसीआई अच्छा काम करेगा, तो मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं’, जैसी व्यंग्यात्मक टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश पर कर रहे हैं, जिसके तहत लोढा समिति की सिफारिशों पर खरा न उतरने वाले उन समेत तमाम क्रिकेट पदाधिकारी अयोग्य और इसीलिए पद मुक्त हो गये हैं तो यह उनकी अहमन्यता की पराकाष्ठा ही है। बेशक न्यायपालिका का काम क्रिकेट प्रबंधन नहीं है, लेकिन इस पर मुठ्ठी भर निहित स्वार्थी राजनेताओं-नौकरशाहों और धंधेबाजों का विशेषाधिकार कब से और कैसे हो गया?
क्रिकेट के कर्णधारों की काबिलियत का सच उजागर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर की यही टिप्पणी पर्याप्त होनी चाहिए कि तब तो न्यायाधीशों की टीम के कप्तान के नाते वह भी क्रिकेटर हुए। क्या कोई बता सकता है कि एन. श्रीनिवासन, शरद पवार, शशांक मनोहर और इनके संगी-साथी कब कहां किस स्तर पर कितना क्रिकेट खेले थे अथवा फिर प्रबंधन में कौन-सी विशिष्ट डिग्री कहां से लेकर आये? सरकारी-अर्धसरकारी नौकरी से आदमी 58-60 साल में रिटायर हो जाता है, पर ये मठाधीश 70 साल बाद भी कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं। एक राज्य-एक मत और पद पर अधिकतम 9 वर्ष रहने की सीमा भी इन्हें मंजूर नहीं। तब जाहिर है, स्वार्थ कुछ ज्यादा ही बड़े होंगे।
बीसीसीआई की रीति-नीति पर पहले भी सवाल और संदेह उठते रहे हैं, लेकिन जब कमोबेश सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता और असरदार नौकरशाह शरीके जुर्म हों, तब बिल्ली के गले में घंटी भला कौन बांधे? बीसीसीआई का काम तो है खेल और खिलाड़ियों का विकास, लेकिन वह चंद निहित स्वार्थी तत्वों का जमावड़ा और उन्हीं के हित संवर्धन का खेल बनकर रह गयी है। फिर भी अगर सुनील गावस्कर से लेकर कपिलदेव और सचिन तेंदुलकर से लेकर विराट कोहली तक अनेक भारतीय क्रिकेटर महान हुए हैं तो अपनी मेहनत और किस्मत के बल पर। विश्व का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड—बीसीसीआई खिलाड़ियों को बेहतर पारिश्रमिक देने का दम तो भर सकता है, लेकिन देश को एक भी बड़ा खिलाड़ी देने का दावा नहीं कर सकता, जबकि उसकी कारगुजारियों के चलते मोहिंदर अमरनाथ और मदनलाल सरीखे अनेक खिलाड़ियों के कैरियर से खिलवाड़ का दाग अवश्य उसके दामन पर है।
दशकों तक बीसीसीआई का गोरखधंधा जस का तस चलता रहा तो इसलिए कि दौलत, शोहरत, ग्लैमर और राजनीतिक संरक्षण के चलते किसी ने इससे टकराव का दुस्साहस नहीं किया। जब आईपीएल के जरिये इस खेल को पूरी तरह मनोरंजन और कारोबार में तबदील कर दिया गया तो इसका दायरा भी बढ़ा और विकृतियां भी। जिस न्यायिक सक्रियता की परिणति स्वयंभू क्रिकेट प्रबंधकों के पर कतरने के रूप में हुई है, उसकी शुरुआत वर्ष 2013 के आईपीएल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी के खुलासे की जांच से ही हुई थी। खेल से इस खिलवाड़ में तत्कालीन बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन के दामाद एवं आईपीएल टीम चेन्नई सुपरकिंग्स के मालिकों में से एक गुरुनाथ मयप्पन तथा कुछ अन्य टीम मालिकों और खिलाड़ियों के भी नाम सामने आये। खुलासे के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गयी, तब यह एहसास हुआ कि बाड़ ही खेत को खाने लगी है, इसलिए जरूरत पूरे तंत्र की सफाई की है।
आईपीएल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी की जांच करने वाली मुद्गल समिति के ही काम को आगे बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढा की अगुवाई में समिति बनायी थी, ताकि वह दोषियों को सजा के साथ ही पूरे क्रिकेट प्रबंधन को जिम्मेदार-जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए सुझाव-सिफारिशें दे सके। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल 18 जुलाई को ही लोढा समिति की सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया, पर दौलत-शोहरत के शिखर पर बैठे बीसीसीआई के मठाधीशों को तब भी गंभीरता का एहसास नहीं हुआ और वे सिफारिशों पर अमल से बचने के लिए नित नये बहाने गढ़ पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे।
इस बीच बार-बार नसीहत दिये जाने पर भी जब क्रिकेट के मठाधीश न सुधरने पर ही आमादा नजर आये तो सर्वोच्च न्यायालय के पास उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा था। उम्मीद की जानी चाहिए कि क्रिकेट प्रबंधन से शुरू यह खेल सुधार अन्य खेल संगठनों तक भी पहुंचेंगे, जो चंद लोगों की जागीर बन गये हैं।
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