बाजार ने बिगाड़े भाषा के संस्कार
बाजार ने बिगाड़े भाषा के संस्कार
शिवअनुराग पटैरयाआज हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं भाषा के तौर पर हिन्दी को अंग्रेजी के घालमेल ने प्रदूषित कर दिया है । कभी नई दुनिया जैसे हिन्दी के अखबार परिस्कृत हिन्दी की पाठशाला हुआ करते थे । वे शब्द ज्ञान ही नहीं संस्कार भी देते हैं, पर आज के अधिकांश अखबारों में वह बात दायित्व बोध कहाँ । आज बाजार सिर चढ़कर नाच रहा है । इसलिए जो बाजार चाह रहा है, वह अखबारों में हो रहा है । ऐसे अखबारों के मालिक संपादक कह सकते हैं कि यह तो बाजार है, जो बिकेगा उसे बेचा जाएगा, पर वास्तव में ऐसा कहना सही है क्या । मेरी निगाह में तो बिल्कुल नहीं । महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी माखनलाल चतुर्वेदी और राजेन्द्र माथुर की पत्रकारिता की बात भले ही आज बाजार के अनुरूप न दिखाई दे रही हो पर नजीरें तो हम उन्हीं की देते हैं । आखिर हम आजकल के चलताऊ और बिकाऊ पत्रकारों को उस श्रेणी में खड़ा क्यों नहीं करते हैं । यह ठीक उसी तरह है जिस तरह हम बाजार से घर की तुलना नहीं करते । बाजार लाभ-हानि के गणित पर आधारित होता है । उसमें भावनात्मक संवेदनाएं शून्य होती हैं । वह तो सिर्फ पैसे और प्रभाव की भाषा जानता है । प्रतिद्वंद्वी को परास्त और पराजित करने का खेल-खेल रहा है, जबकि घर परिवार आत्मीय रिश्तों के डोर में बंधा होता है । एक जमाना था कोई बहुत दूर नहीं, भाषाई अखबार व्यक्तिगत और सामाजिक मनोकामनाओं, आकांक्षाओं और अभिव्यक्ति के प्रतीक हुआ करते थे, पर क्या वास्तव में आज ऐसा है । टी.जी. और टी.आर.पी. के फेर में न धरम बचा है और न नए मीडिया के ध्वज वाहक, टी.वी. का. आज अखबारों में परोसा जा रहा है । नया केन्द्र वह आदमी है जिसकी सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुँच और पहचान नहीं है । अथवा धन्नासेटों का वह समूह जो अखबारों को माध्यम बनाकर अपने उत्पाद को बेचना चाहते हैं । बाजार बुरा नहीं है पर बुरा बाजार के हाथ खेलना । आज दिल्ली से लेकर भोपाल इंदौर के अखबार विज्ञापनदाताओं और संभावित विज्ञापनदाताओं में अपनी पहुँच बनाने के लिए, तमाम तरह के पुरस्कार बांटते हैं । उनको महिमा मंडित करने के लिए, सर्वे छापते हैं । क्या ऐसा करके वे अपने पत्रकारीय धर्म का निर्वाह कर रहे हैं ? पक्के तौर पर नहीं । अखबार ऐसा करके विज्ञापनदाताओं को अपने पक्ष में करना चाहते हैं फिर चाहे उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े । विज्ञापनदाताओं के इसी समूह को ध्यान में रखकर हिन्दी को भी भ्रष्ट किया जा रहा है । किसी भाषा के शब्द को आत्मसात कर अपनी भाषा से जोड़ना बुरा नहीं है, लेकिन जब हम अपनी भाषा या सहोदर भाषा के शब्दों को निरस्कृत कर अंग्रेजी के शब्दों को उसी लिपि और व्याकरण के साथ प्रयुक्त करते हैं, तो घातक है । दरअसल भाषाएं सिर्फ भाषाएं नहीं होती, वे हमारे स्वाभिमान और संस्कृति की प्रतीक पोषण व संवाहक होती हैं । हिन्दी को हिंगलिस बनाकर हमारे तमाम अखबार एक बड़ा अपराध कर रहे हैं । वे भाषा का संस्कार ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी भाषाई तौर पर कुसंस्कारित व विकृत कर रहे हैं । अखबारों को इस बात को मान लेना चाहिए कि वे सिर्फ छपे हुए पन्ने या व्यापार अथवा हानि लाभ का समीकरण नहीं है । उनके कंधों पर समाज को दिशा ........... दृष्टि देने की गुरूत्तर जवाबदारी । ठीक उसी तरह जिस तरह चिकित्सक के कंधों पर धन लाभ से परे हटकर, बीमार और पीड़ित व्यक्ति को भला चंगा करने का दायित्व होता है । बाजार की बाधा को पार कर, जितना जल्दी यह बात मान लें अच्छा है । (दखल)(वरिष्ठ पत्रकार शिवअनुराग पटैरिया की एक दर्जन किताबे बाजार में मौजूद हैं, पटैरिया वर्तमान में लोकमत समाचार में कार्यरत हैं |)
Dakhal News 22 April 2016

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