नर वानरहि संग कैसे ? त्रेता युग की नियति
नर वानरहि संग कैसे ? त्रेता युग की नियति
मनोज श्रीवास्तवयह त्रेता की नियति थी कि नर और वानर को साथ- साथ होना था। सीता की उत्सुकता इस बात को जानने में है कि यह नियति किस प्रकार फलित हुई? कैसे यह ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’संभव हुई? नियति से मुलाकात। राक्षसी सत्ताएं सिर्फ नर के विरोध में नहीं होती, वे वानर के विरोध में भी होती हैं। वे दोनों पर अपनी प्रभुता जमाना चाहती हैं। वानरसंस्कृता उन्हें पहले ही पटकनी दे चुकी होती है। उन्हें छ: महीने तक कांख में दबाए रहती है। लेकिन असल प्रश्न तो राक्षसी सत्ता के उन्मूलन का है। वह कोई वैयक्तिक द्वंद्व नहीं है। वह शासनादर्श का सवाल है। ‘नर’ आकर ‘वानर’ को यह प्रयोजनशीलता का पर्सपेक्टिव उपलब्ध कराता है। वह नर जो तत्वत: नारायण है। उसे मालूम है कि चाहे तो वह भी बालि की तरह कोई वैयक्तिक द्वन्द्व युद्ध कर सकता है। बल्कि उसे मिली चुनौती भी काफी हद तक पर्सोनलाइज्ड है। उसकी पत्नी को उठा लिया गया है। वह तो वन में और जनस्थान में छाए हुए राक्षसी आतंक को खत्म करने के उद्देश्य से कभी विरोध तो कभी खरदूषण को मार रहा था। लेकिन रावण ने ऐसी हरकत की थी कि इस लड़ाई के प्रयोजन का वैराट्य खत्म हो जाएं और यह राम-रावण के निजी स्कोर सेटल करने में अपघटित होकर रह जाए। लेकिन राम रावण के ट्रेप में नहीं फंसते। वे लड़ाई की महनीयता को कम नहीं होने देते। वे वानरों का साथ लेते हैं। बात इस ‘संगति’ की है। राम के गौरव में कमी नहीं आएगी, यदि वे अकेले ही रावण की राक्षसी ताकत से निपट लें। लेकिन राम अकेले यह नहीं करना चाहते। वे जोड़ते हैं, कनेक्ट करते हैं, नेटवर्किंग करते हैं, एक कामनवेल्थ बनाते हैं। वे अकेला मदमाता, गर्वभरा, दिपदिपाता, दीप नहीं बनते। वे पंक्ति ढूंढ़ते हैं, वे मानते हैं कि हम साथ हैं तो सार्थ है। वे अपने साथियों को भूमिका देते हैं, उन्हें दायित्व देते हैं। इसलिए उनके इन सब साथियों में ‘रामकाज’ का इतना महत्व है, क्योंकि वह भूमिका नहीं है विश्वास है। इसीलिए राम की आत्मा यानी सीता भी ‘संग कहुं कैसे’ का प्रथमतम प्रश्न करती हैं। इसलिए राम की स्मृति हमारी चेतना में दीपावली से जुड़ी है। वे दीप नहीं, दीप की पंक्तियों के भगवान हैं। वे बुद्ध की तरह यह नहीं कहते कि ‘अप्प दीपो भव’ बल्कि वे सभी के हृदय में मौजूद आलोक का संग्रह करते हैं और फिर तमस की शक्तियों से निर्णायक युद्ध करते हैं। खर-दूषण से वे इसके पहले अकेले ही भिड़ते हैं। लेकिन अद्वितीय वीरता के बावजूद वह उनके जीवन का एक एपिसोड मात्र है। अत: वे रावण से युद्ध को इस ‘संगति’ के जरिए वृहत्तर और महत्तर सामाजिक सार्थकता देना तय करते हैं। यह उनके जीवन का एक प्रसंग न रहकर महाकाव्यात्मक चरितार्थताएं प्राप्त करेगा। इसलिए सीता की रुचि ‘संग’ का पता करने में है। इसलिए हनुमान की रुचि ‘संगति’ की कथा बताने में है, दुर्गा सप्तशती में मध्यम चरित्र में देवताओं के तेज का एकत्रीकरण दुर्गा के रूप में हुआ था और उत्तर चरित्र में अलग सभी देवताओं की शक्तियां देवी में आकर लीन भी हो जाती हैं। वह ‘यूनियन’ का आदर्श था। राम के यहां ‘फेडरलिज्म’ का आदर्श है। देवशक्तियां वन में बिखरी पड़ी हैं। उन्हें अपने साथ ले चलना है। राम उन देवताओं के तेज का संपुजन नहीं हैं, वे तो स्वयं भगवत्ता के अवतार हैं। राम में इन देवताओं की विभूतियां आकर प्रवेश नहीं करतीं जैसी देवी अंबिका में करती हैं बल्कि राम ही इन सबके हृदय में स्थित हैं। राम ‘जन’ और ‘गण’ को साथ लेते हैं। ‘जनस्थान’ राक्षसों से संत्रस्त था। पब्लिक प्लेस पर राक्षसी आतंक और धौंस कायम थी। इसलिए पब्लिक की लड़ाई राम के नेतृत्व में लड़ी गई। पब्लिक वहां निष्क्रिय उपस्थिति नहीं दर्ज कराती। दिशा दिशा में जाती है, अन्वेषी है, पुल बनाती है और लड़ती है। सीता अपहरण के बात राम के संघर्ष जानबूझकर जैसे अकेले नहीं रह गए। जब ‘व्यक्तिगत’ पर आक्रमण हुआ तो ‘सामाजिक’ की तलाश ज्यादा जरूरी हो गई। इसलिए नहीं कि अपने प्राइवेट प्रतिशोध में आमजन को उलझाना था बल्कि इसलिए कि जब सामने वाला नीच हरकतों पर उतर आया- मारीच, सुबाहु, विराध, खर-दूषण, शूर्पणखा प्रसंगों के बाद- तो राम को उससे ऊपर ही उठना था। वे शुरू से ही जब की लड़ाई लड़ रहे थे और सीता अपहरण के बाद भी वे डिबिएट नहीं हुए बल्कि और सचेत व साग्रह तरीके से-संग्रह और जन-संगठन में जुट गए। रावण की कुचाल सफल नहीं हो पाई। सीता का अपहरण करके रावण ने अपने अपकर्मों का शीर्ष छू लिया। उस अपहरण ने जैसे राम के भीतर बहुत कुछ जगा दिया। ऐसे दुष्ट से निगोशिएट नहीं किया जाएगा। इसका तो सर ही कुचलना पड़ेगा। राम ने व्यक्तिगत उत्तेजना में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई, उन्होंने निजी हड़बड़ी में बदला भुनाना नहीं चाहा। उन्होंने प्रतिक्रिया को एक अंतराल मुहैया कराया। उस दौर में उन्होंने जन और वन के कष्टों से अपने को एकाकार किया। वानरों की लड़ाई उन्होंने लड़ी। इस अंतराल का उपयोग उन्होंने संगति करने और संगति को प्रगाढ़ व दृढ़ करने में किया। रावण पर वार अब उन्हें ही नहीं करना था। अब तो एक वानर को भी लंका- दहन करना था। इसलिए राम की जीत में सबको खुशी होती है क्योंकि राम की जीत सबकी जीत थी। रावण का प्लान फेल हो गया। राम ने एक सालिडेरिटी कायम की। यह राम की संगत थी। बाद में जैसे सिक्ख संगत बनी, वैसे ही राम के समय में यह संगत अस्तित्व में आई। हनुमान इसी ‘संगति’ की कथा सीता को कह सुनाते हैं। क्या वह राक्षसों की जानी पहचानी शैली नहीं है? जब कोई लोककर्तव्यों का संपादन कर रहा हो तो उस पर व्यक्तिगत हमले करो। उसके निजी जीवन पर आघात करो, भले ही खुद का हरम हजारों अपहृता स्त्रियों से भरा हो, लेकिन अपने शत्रु के पास एक स्वयंवरित तक भी न रहने दो। भंग करो उसकी पारिवारिक शांति। होते हैं कुछ त्रेता के धोबी की मानसिकता वाले। वे आदतन डिस्क्रेडिट करेंगे ही। रावण अपना प्लान उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाता है। उसकी कोशिश है राम को हताशा के एकांत में डुबोने की। राम थोड़ी देर के लिए डूबते भी हैं। लेकिन फिर वे लोक कर्तव्य की अपनी धुरी पर लौट आते हैं और रावण का काल सिद्ध होते हैं। लोक कर्तव्य की यह धूरी उसी ‘संगत’ की माधुरी से संभव होती है। देखिए कि संगति का यह स्वर रैदास जैसा नहीं है कि ‘‘साधो संगति सरनि तुम्हारी/ तुम्ह चंदन मैं अरंड बाहुरौ, निकटि तुमारी बासा’’। बल्कि इसमें एक समानता का भाव है। देखिए कि यहां सत्संगति या सुसंगति की बात नहीं की जा रही, जबकि भक्ति काव्य सत्संग के गुण- वर्णन से भरा पड़ा है और स्वयं तुलसी भी सत्संग की महिमा जब तब गाते रहते हैं। यहां इतने महत्वपूर्ण क्षण वे बात ‘संगति’ भर की कर रहे हैं क्योंकि बात सिर्फ साथ की नहीं है बल्कि सानुकूलता और समंजस की है। नर वानर की पटरी कैसे बैठ गई? उनके बीच यह ‘मिल्लत’ कैसे स्थापित हो गई? [दखल] आई ए एस मनोज श्रीवास्तव भोपाल के कमिश्नर हैं
Dakhal News 22 April 2016

Comments

Be First To Comment....
Advertisement
Advertisement

x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2024 Dakhal News.