जीत हार के पार अयोध्या
राजेन्द्र आगल ''कुछ भी कहो इन पर असर नहीं होता। खानाबदोश आदमी का कोई घर नहीं होता।। ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा हैं साहिब। जो किसी की आसुओं से तर नहीं होता।। 30 सितंबर से पहले अयोध्या मसले को लेकर हर किसी की यही सोच हुआकरती थी, लेकिन इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ ने जो ऐतिहासिक फैसला सुनाया हैउससे अब लोग कहने लगे हैं कि दिलों की दूरियां मिट जाए, अब ऐसी सुलह हो।हालांकि अदालत के बाहर फ़ैसले की आस संजोने वाले लोगों की दलील रही है किधार्मिक भावनाओं से जुड़े मसलों को कभी भी कोर्ट के गलियारे में नहींसुलझाया जा सकता। आपसी समझ और मेलजोल ही इस मसले को हल कर सकता है। हल केतौर पर यह फ़ैसला सदभाव के सबसे करीब दिखता है, लेकिन बातचीत के लिए हुईपिछली पच्चीस कोशिशें इस तरह के हल की संभावना को बस जुमला ही साबित करतीआ रही हैं। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकीलजफरयाब जिलानी और निर्मोही अखाड़े के पीठाधीश्वर वैष्णवाचार्य गोस्वामीवल्लभराय ने इस बात के संकेत दे दिया है कि मामले को सुप्रीम कोर्ट लेजाने से पहले मध्यस्थता की गुंजाईश है। एक स्थान से जुड़ी आस्था देश की राजनीति को बुरे के लिए बदल सकती हैतो उसका एक सर्वमान्य हल उसी राजनीति को एक नई और बेहतर दिशा भी दिखासकता है। अयोध्या पर अदालती फैसले के बाद इस मुद्दे को राजनीति के दायरेसे बाहर लाना होगा। इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का वक्त खत्म हो चुकाहै। अब इस मुद्दे में आम आदमी को उलझा कर नहीं रखा जा सकता। इस फ़ैसले केसाथ ही न्यायपालिका (अगर मामला सुप्रीम कोर्ट नहीं जाता है तो) कीजिम्मेदारी खत्म हो गयी है लेकिन ठीक यहीं से शुरू होती है कार्यपालिकाकी चुनौती। अब यह उसकी जिम्मेदारी होगी कि अदालत के फ़ैसले को लागूकरवाये और कानून-व्यवस्था की हालत बिगडऩे न दे। अगर इस चुनौती से पार पालिया गया तो पूरी दुनिया के सामने देश के लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उभरकर आ जायेगी।इतिहास गवाह है कि अयोध्या मसला न्याय से ज्यादा अहम की लडाई का रहा हैऔर इसे अहम की लड़ाई हमारे यहां की सांप्रदायिक राजनीति ने बनाया है।हिंदू समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह डाल दिया गया है कि हमारे देशमें आकर, हमारी इतनी संख्या होने के बावजूद कोई हमारे सबसे बड़े आराध्यके जन्म स्थान को हमसे कैसे छीन सकता है (भले इसके कोई प्रमाण हों या नहों)। वहीं मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह घर करा दिया गयाहै कि अगर हम इस तरह से हार मान लेंगे तो पता नहीं किन-किन बातों पर हमेंबहुसंख्यक समुदाय के साथ समझौते करने पड़ेंगे। लेकिन हाईकोर्ट ने दोनोंसमुदाय के फिरकापरस्त नेताओं की मंशा पर पानी फेरते हुए यह पैगाम दे दियाहै कि अयोध्या जीत हार की लड़ाई से आगे निकल चुकी है और देश की जनता भीइस बात को भली-भांति जान गई है कि...'फूंका है कभी मस्जि़दों को तोकभी मंदिर जलायें हैं,क़ौम के ठेकेदारों ने जाने कितने घर जलायें हैं,सेंकी है रोटियां कभी हिन्दुओं की चिताओं पर,कभी मुस्लमानों की लाशों से कफऩखींचकर जलायें हैं।इबादत नहीं इन्हें तो फिऱकापरस्ती ही आती है,कभी राम को सरेआम मारा कभी अल्ला-अकबर जलायें हैं। इसीलिए अब कोर्ट के फैसले के बाद देश की फिजाओं में यह बात गूंजनेलगी है कि तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय, न तुम हारे, न हम हारे। गरसचमुच फैसले को दोनों पक्ष इसी नजरिए से देखें, तो अयोध्या पर अदालतीफैसला न सिर्फ ऐतिहासिक, अलबत्ता राष्ट्रीय एकता की अनूठी मिसाल होगा।इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के तीनों जजों ने राम जन्मभूमि को कानूनीमान्यता दी। तो बाकी अन्य पक्षों को भी निराश नहीं किया। भले तीनों जजोंकी राय में फर्क हो पर फैसला यही हुआ कि विवादित जमीन तीन हिस्सों मेंबांटी जाए। रामलला विराजमान यानी मूर्ति वाली जगह का हक भगवान राम को तोसीता रसोई और राम चबूतरा का हक निर्मोही अखाड़े को। चूंकि लंबे समय सेमुस्लिम भी इबादत करते आ रहे थे सो एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी देदिया। यों तो एक अक्टूबर को रिटायर हो रहे बैंच के एक जज धर्मवीर शर्माने तो समूची जमीन भगवान राम की बताई पर जस्टिस एसयू खान और सुधीर अग्रवालने तीन हिस्से में बांटने का फैसला दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग की रपटसे माना गया, मस्जिद किसी इमारत को तोड़कर बनाई गई थी सो इस्लामिकमान्यता के तहत ऐसी जमीन पर मस्जिद को मान्यता नहीं दी गई पर नौ हजारपन्नों के फैसले में कोर्ट का लब्बोलुवाब यही रहा कि रामलला की पूजाअनंतकाल से होती आ रही, सो मंदिर भी बने। यानी कानून से परे हट अदालत ने शायद पहली मर्तबा आस्था को महत्वदिया। जिस पक्ष का जैसा था, उसको करीब-करीब वैसा ही मिल गया। सचमुच इतनेउलझे हुए केस का इससे सुलझा हुआ हल नहीं हो सकता सो सभी पक्षों को अबलचीला रुख अपनाना चाहिए। अदालती फैसले को आधार बना नए सिरे से बातचीत हो।तो सिर्फ विवादित जमीन ही नहीं, समूची 70 एकड़ जमीन का फैसला हो जाए सोअब केंद्र सरकार की भूमिका भी अहम है जिसने 1993 में 67 एकड़ जमीनअधिग्रहित कर ली थी। हाईकोर्ट ने तो रामलला और निर्मोही अखाड़े की जमीनतय कर दी पर मुस्लिमों की इबादत की जगह तय नहीं की। अलबत्ता तीनों के लिएबराबर व्यवस्था करने का जिम्मा सरकार पर छोड़ दिया। अगर केंद्र चाहे, तोअब दोनों पक्षों में समझौता कराने की पहल कर सकता। भले दोनों पक्ष फैसलेसे पूरी तरह संतुष्ट नहीं, पर पूरी तरह असंतुष्ट भी नहीं हैं सो सरकारईमानदार और प्रभावी पहल करे, तो विवाद हाईकोर्ट के फैसले से ही खत्म होसकता है।यों फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने सुप्रीमकोर्ट जाने का ऐलान कर दिया तो मंदिर के पैरोकारों में भी कुछ ऐसेकट्टरपंथी, जो मस्जिद के लिए एक तिहाई जमीन के फैसले को चुनौती देने केमूड में। यों फैसले के फौरन बाद संघ-बीजेपी ने इस पर चुप्पी साध ली। सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह फैसला संत उच्चाधिकार समिति पर छोड़ दिया परभागवत-आडवाणी दोनों अपनी खुशी का इजहार चतुराई से कर गए। कहा- हिंदुओं काहक साबित हो गया सो अब गर्भगृह पर भव्य राम मंदिर बने। हाईकोर्ट का फैसलाराष्ट्रीय एकता का नया अध्याय और सांप्रदायिक सौहार्द का नया युग। मोहनभागवत ने फैसले पर खुशी को स्वाभाविक बताया पर संयम की अपील करते हुएकहा- कोई ऐसा कुछ न करे, जो दूसरे की भावना को ठेस पहुंचाए। संघ परिवारने मुस्लिम समाज से भूली ताहि बिसारने की अपील करते हुए मंदिर निर्माणमें जुटने का न्योता भी दिया। पर संघ की ओर से जारी बयान में मंदिरआंदोलन में मारे गए लोगों की कुर्बानी का भी जिक्र कर गए।इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के फैसले से कांग्रेस और भाजपादोनों की मुश्किलें कुछ कम हो गई हैं। हाईकोर्ट ने विवादित परिसर कोरामजन्म स्थान बताकर संघ परिवार के दावे पर मुहर लगा दी है। इससेकांग्रेस एक बड़े संकट से बच भी गई है। लंबे समय से विवादित इस मसले परआए फैसले में हर पक्ष के लिए कुछ न कुछ है। शायद यही वजह है कि संघप्रमुख मोहन भागवत ने बड़े सधे शब्दों में कहा फैसले को किसी पक्षकी हार या जीत के रूप में नहीं लेना चाहिए। विवादित स्थान के जीपीआरएस सर्वे और उसके बाद एएसआई की रिपोर्ट नेमुकदमे की दिशा पहले ही काफी कुछ तय कर दी थी। अगर अदालत ने अपने फैसलेमें जन्म स्थान के बारे में कोई शक-शुबहा की गुंजाइश छोड़ी होती तो उसेलेकर कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए राजनीतिक समस्याएं खड़ी होती। अब यहतय है कि संघ परिवार केंद्र सरकार पर यह दबाव बनाएगा कि अधिग्रहीत जमीनभी हिंदुओं को दे दी जाए। केंद्र सरकार व कांग्रेस के सामने संघ परिवारके इस दबाव का धर्म संकट जरूर बढ़ेगा। दरअसल अदालत को जो फैसला देना थाउसने दे दिया है। अब आगे का रास्ता राजनीतिक नेतृत्व को तय करना है। इतनाही नहीं जहां अब कांग्रेस के दोनों समुदायों को साथ लेकर चलने केराजनीतिक कौशल की परीक्षा होनी है, वहीं भाजपा के सामने अपनी कट्टरहिंदुत्ववादी छवि से निकलने का अवसर भी है। यही वजह है कि आज भाजपा केशीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा फैसले ने राष्ट्रीय एकता के लिए एकनया अध्याय खोला है और दोनों समुदायों के बीच रिश्तों के नए युग कीशुरुआत की है। दरअसल उच्च न्यायालय के तीनों माननीय न्यायाधीशों ने राम लला केजन्म स्थान पर एकमत होकर जो फैसला दे दिया है उससे भाजपा व संघ परिवार कोअनचाहे एक बढ़त मिली है। पार्टी की सोच है कि मंदिर न बनने से जो तबकानाराज था उसकी नाराजगी उच्च न्यायालय के फैसले से अपने आप दूर होगी।फैसले के बाद उभरे नए राजनीतिक परिदृश्य ने सपा के सामने एक बड़ा सवालखड़ा किया है। किसी भी तरह का ध्रुवीकरण सपा के लिए राजनीतिक फायदे का होसकता था। फैसले ने उस गुंजाइश को ही खत्म कर दिया है। जबकि दूसरी तरफबसपा का राजनीतिक मिजाज मंदिर मस्जिद का कभी रहा ही नहीं। इसलिए फैसले सेसीधे तौर पर उसका कोई नुकसान होता नहीं दिखता। हालांकि फैसले नेकांग्रेस, केंद्र सरकार व भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौतियां भी खड़ी कीहैं। यों देश की जनता की परिपक्वता को अपना भी सलाम, जिसने फैसले कोन्याय के तौर पर कबूला। फिर भी राजनीति नहीं होगी, ऐसा कहना बेमानी है।मायावती ने तो फैसले के फौरन बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चि_ी लिखदी। केंद्र की ओर से 67 एकड़ जमीन अधिग्रहण का इतिहास याद कराते हुए मायाने फैसले के मुताबिक यथोचित कार्रवाई करने की मांग की। उनने बार-बारदोहराया, इस विवाद में जो भी करना है, वह केंद्र ही करेगा। यानी माया नेएक पक्ष की थोड़ी निराशा को देख अपना पल्ला फौरन झाड़ लिया। ताकि कहींकुछ गड़बड़ हो, तो ठीकरा केंद्र के ही सिर फूटे। पर कांग्रेस कोईभाजपा-बसपा की तरह गबरू जवान पार्टी नहीं है। अलबत्ता सवा सौ साल पुरानीतजुर्बेकार पार्टी है। सो मामले की संवेदनशीलता देख हर बार की तरह इस बारभी फैसले का स्वागत किया। कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी आध्यात्मिक गुरुबन गए। रामचरित मानस की चौपाई का जिक्र किया- प्रसन्नतां या नगताभिषेकतस्था, न मम्ले वनवास दुखत। मुखाम्बुजश्री रघुनंदनस्य मे,सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।। अर्थात भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ यावनवास हुआ। पर चेहरे पर कभी खुशी या दुख नहीं। अलबत्ता स्थिरप्रज्ञ कीतरह रहे। यानी राम को शरणागत होकर कांग्रेस ने संयम की अपील की। सचमुचदेश के लिए इम्तिहान का दौर था। 30 सितंबर को फैसले के प्रति देश कीनिगाहें इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच पर टिकी हुई थीं। हर तरफ बापू केभजन, ईश्वर-अल्लाह के बोल गूंज रहे थे। सन्मति दे भगवान की धुन बजती रही।फैसले के बाद मीटिंग्स, बयानबाजियों का दौर चला। प्रधानमंत्री ने भी देशकी जनता पर भरोसा जताया। देश की जनता ने भी परिपक्वता दिखा राजनीति कीरोटी सेकने वालों को बतला दिया, 1992 का दौर अब खत्म हो चुका। यानीअयोध्या पर फैसला भी आ गया, दोनों समुदायों के बीच फासला भी नहीं बढ़ा सोअब अपील कि जा रही है कि जो भी फासला बचा, सुलह के प्रयासों से ही मिटजाए और किसी को सुप्रीम कोर्ट जाने की जरूरत न पड़े। अयोध्या का विवादआजादी मिलने और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद शुरू हुआ। आजादभारत में 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में कथित रुप मेंरामलला प्रकट हुए। सुबह इसकी जानकारी सिपाही माता प्रसाद ने थाना इंचार्जरामदेव दुबे को दी। 29 दिसंबर 1949 को आईपीसी की धारा 145 के तहत इसेकुर्क कर लिया गया। उसके बाद से ही यह विवाद सुर्खियों में रहा और 30सितंबर 2010 की सुनवाई से पूर्व यह देश का सबसे संवेदनशील मामला था।अयोध्या में विवादित स्थल की जगह पर मस्जिद के अस्तित्व में आने से काफीपहले मंदिर होने के नतीजे तक पहुंचने में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण(एएसआई) की रिपोर्ट की अहम भूमिका मानी जा रही है। एएसआई रिपोर्ट मेंसंबंधित स्थल पर ढाई हजार साल पहले से कोई न कोई ढांचा मौजूद रहने केसंकेतों की बात कही गई है। 29 मुसलमानों सहित 131 मजदूरों की टीम द्वाराखुदाई के दौरान मिले साक्ष्यों के आधार पर एएसआई ने रिपोर्ट में विवादितस्थल पर मस्जिद से पहले 10वीं सदी का एक ढांचा होने के प्रमाण मिलने कीबात कही है, जो हिंदू मंदिर की तरह था। एएसआई को राम चबूतरा के पास एकचैंबर और 11 खंभों के आधार मिले हैं। एएसआई की रिपोर्ट में पांच स्तरीयढांचे की बात भी है, जिसमें हर स्तर पर चूना-सुर्खी के गारे के इस्तेमालके सबूत पाए गए। एएसआई ने अगस्त 2003 में 574 पेज की रिपोर्ट इलाहाबादहाई कोर्ट की लखनऊ बेंच को सौंपी थी। पुरा अवशेषों में कमल, कौस्तुभआभूषण जैसे हिंदू प्रतीक चिह्न् पाए गए हैं। यहां मिलीं ईटें बाबर के कालके पहले की पाई गई हैं। कुछ पुरावशेष जमीन से 20 फीट नीचे पाए गए हैं।एएसआई का मानना है कि 20 फीट से नीचे पाई गई सामग्री 1500 साल पुरानीहोनी चाहिए। विवादित स्थल पर मूल सतह 30 फीट तक नहीं मिली है, जिससेअनुमान लगाया गया है कि उस स्थान पर 2500 साल पूर्व तक कोई न कोई ढांचारहा है।ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि एएसआई की रिपोर्ट के अलावा कोर्ट नेऐतिहासिक दस्तावेजों का सहारा भी लिया होगा। इन दस्तावेजों में यात्रावृत्तांत से जुड़े गैजेटियर, बाबरनामा बाकी ताशखंडी, ईस्ट इंडियागैजेटियर 1828 और गैजेटियर ऑफ द टेरिटरीज 1858 शामिल हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक केमुकदमे में फैसला सुनाते हुए संभवत: एएसआई की रिपोर्ट का सहारा लिया है।लेकिन पहली बार 28 अप्रैल, 2003 को दाखिल की गई पहली रिपोर्ट पर हीइतिहासकारों ने अपनी आपत्ति जता दी थी। हालांकि, एएसआई की रिपोर्ट मेंमंदिर के अस्तित्व पर सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन रिपोर्ट मेंअहम जगहों पर दिलचस्प और महत्वपूर्ण जैसे शब्दों का इस्तेमाल और सबूतमंदिर होने की ओर इशारा करते हैं।ये बात हमें साफ-साफ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। औरन ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दाहै बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, औरमुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा औरआत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का जमीनी झगड़ा चल रहा थाबहुत सालों से। 1855 तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेजों को इसमामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिनगौर करने योग्य बात ये है कि आजादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले कोसुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताकत और सत्ता के जरिये इसजमीन को कब्जियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जोआजादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरहके न्यायिक आस्थाओं का मुजाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटावमिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का! इतिहास इसका गवाह रहा है कि महंगाई और गरीबी देश के सामने हमेशा हीमुद्दा रही है। लेकिन धार्मिक उन्माद ने उन सभी मुद्दों को पीछे छोड़ाहै। राजनीतिक निहितार्थ के मद्देनजर भी आज यह मसला उतना ही जीवित है। जिननायकों की पहचान ही इसी मुद्दे के आधार पर गढ़ी गई थी वे आज भले ही इसमुद्दे को लेकर हां और ना दोनों के साथ दिख रहे हों। लेकिन 23 और 24सितंबर को जिस तरह से ये चेहरे बयान जारी कर रहे थे उससे साफ़ जाहिर होरहा था कि इस मसले को राजनीतिक रंग देने के प्रयास आज भी कमजोर नहीं हुएहैं। दूसरी तरफ़ है आम जनता। महंगाई से जूझ रही आम जनता। कॉमनवेल्थ मेंगेम्स लेन के बगल जाम से जूझ रही जनता। दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहीआम जनता के मन में राम-रोटी की भूख क्या आज भी उतनी ही तेज है? देश मेंहम अभी तक गरीबी का प्रतिशत तय ही नहीं कर पाए हैं। एनएसएस का आंकड़ागरीबी को 27 फ़ीसदी दिखाता है तो अर्जुन सेन कमेटी में यह आंकड़ा 77फीसदी तक चला जाता है। दुनिया के पंद्रह करोड़ कुपोषित बच्चों में से एकतिहाई बच्चे भारत में हैं। शिक्षा का अधिकार हम अपने देश के बच्चों कोअभी तक उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। ऐसे हालात में मंदिर या मस्जिद का सवालदेश के आम आदमी की बेहतरी की दिशा में भला क्या योगदान कर पाएगा? अयोध्याके मंदिर-मस्जिद विवाद से आगे बढ़कर देश के सामने पेश इन चुनौतियों केबारे में ठोस कदम उठाया जाए। बीते दो दशकों में देश के साथ-साथ उत्तरप्रदेश और अयोध्या भी बदले इसी में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भलाईहै![दखल]