महंगाई के मारे हम बेचारे
संजय द्विवेदी एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है । इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है । पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं । जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं । केन्द्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था ÷ कांग्रेस का हाथ, गरीब के साथ ।' जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है - ÷ कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ ।' पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है । महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है । महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे । वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है । भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेंगे । हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है । सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वयन में लगा है । अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग २० रूपये से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती । किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है । आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं हैं जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए । ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं । उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है । पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियाँ उस कलावती या दलितों के पक्ष में है जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं । आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है । भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिन्दगी में कड़वाहटें घोल रहा है । तेल की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उस पर ड्यूटी लगती है । इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है । सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगे । सरकार भले अपने इस कदम को तर्को से सही साबित करे किन्तु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं । किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती है । आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं । ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है । सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं । तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं । सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केन्द्र में जनता का एजेंडा नहीं है । लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्तार बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में है । राजनीति के केन्द्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है । देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संघर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित करता है । त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिर पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा । किन्तु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रवण मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े । बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं । (दखल)(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जन संचार विभाग के प्रमुख हैं)