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-भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य को परिभाषित करता आरएसएस
-एक विचार से विश्व के सबसे बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक वटवृक्ष बनने तक संघर्ष
-तपस्या और राष्ट्र-उत्कर्ष की अनवरत यात्रा की शताब्दी
(प्रवीण कक्कड़)
जब कोई विचार एक बीज के रूप में बोया जाता है और सौ वर्षों तक करोड़ों लोगों के समर्पण से सींचा जाता है, तो वह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा बन जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की 2025 में पूर्ण हो रही शताब्दी ऐसी ही एक गाथा है—तपस्या, संघर्ष और राष्ट्र-उत्कर्ष की एक अनवरत यात्रा। विजयादशमी 1925 को जन्मी यह विचार-धारा आज विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बन चुकी है, जिसकी जड़ें भारत के मन और मिट्टी में गहराई तक समाई हैं।
संकल्प का अंकुरण – डॉ. हेडगेवार का युग (1925-1940)
बीसवीं सदी का तीसरा दशक भारत के लिए घोर निराशा और आत्म-विस्मृति का काल था। तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के उतार-चढ़ाव और समाज में व्याप्त अनुशासनहीनता को देखकर नागपुर के दूरदर्शी चिकित्सक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने अनुभव किया कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं है। असली आवश्यकता राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाने और एक संगठित समाज का निर्माण करने की है। उनका निदान स्पष्ट था: सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज में स्वार्थ और आपसी फूट को जन्म दिया है, जिसका एकमात्र उपचार ‘व्यक्ति निर्माण’ है।
इसी संकल्प के साथ, 1925 की विजयादशमी को उन्होंने कुछ राष्ट्रभक्त साथियों के साथ संघ की स्थापना की। उन्होंने ‘शाखा’ पद्धति की शुरुआत की—एक ऐसा विचार जहाँ खुले मैदान में एक घंटे के लिए स्वयंसेवक खेल, योग, बौद्धिक चर्चा और देशभक्ति गीतों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व वैचारिक रूप से सशक्त होते हैं। यह मौन साधना से व्यक्तित्व गढ़ने की एक प्रयोगशाला थी, जिसने भारत के सांस्कृतिक नवजागरण का बीज बोया।
विचार का विस्तार – श्री गुरुजी गोलवलकर का युग (1940-1973)
1940 में डॉ. हेडगेवार के देहावसान के पश्चात, श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्री गुरुजी’ ने सरसंघचालक का दायित्व संभाला। यदि डॉक्टर साहब संघ के शरीर-निर्माता थे, तो श्री गुरुजी उसकी आत्मा और विचारों को गढ़ने वाले थे। उन्होंने लगभग 33 वर्षों तक अथक राष्ट्रव्यापी प्रवास करके संघ की वैचारिक जड़ों को भारत के कोने-कोने तक पहुँचाया। उन्होंने ‘प्रचारक परंपरा’ को सशक्त किया—ऐसे समर्पित युवा जो अपना घर-परिवार त्यागकर संपूर्ण जीवन राष्ट्र-कार्य में लगाते हैं। 1948 में गांधीजी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर लगाया गया प्रतिबंध उसकी पहली अग्निपरीक्षा थी, जिसमें से संघ तपकर और मजबूत होकर निकला।
सामाजिक समरसता और सेवा का शंखनाद – बालासाहेब देवरस का युग (1973-1994)
गुरुजी के बाद बालासाहेब देवरस तीसरे सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ को सामाजिक सेवा और समरसता के क्षेत्र में सक्रिय करने पर विशेष जोर दिया। उनका प्रसिद्ध वाक्य, “यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है,” सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध एक युद्धघोष था। उनके ही काल में सेवा कार्यों का देशव्यापी विस्तार हुआ और 1975 के आपातकाल में लगे प्रतिबंध के विरुद्ध संघ के आंदोलन ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।
आधुनिक युग का संघ: संवाद, समन्वय और समावेशिता
प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) और के.एस. सुदर्शन के नेतृत्व में संघ ने 21वीं सदी की चुनौतियों के लिए स्वयं को तैयार किया। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ ने संवाद और समावेशिता के एक नए अध्याय का सूत्रपात किया है। उन्होंने इस धारणा को तोड़ा है कि संघ एक बंद वैचारिक संगठन है।
उनका सबसे महत्वपूर्ण कदम उन वर्गों और समुदायों से सीधा संवाद स्थापित करना रहा है, जो दशकों से संघ से दूर या सशंकित रहे हैं। मुस्लिम समाज के प्रबुद्ध लोगों से निरंतर मुलाकातें करना, मस्जिदों और मदरसों तक पहुँचने की पहल करना, और बार-बार यह दोहराना कि "सभी भारतीयों का डीएनए एक है," उनकी इसी व्यापक दृष्टि को दर्शाता है। वे हिंदुत्व को पूजा-पद्धति से इतर, भारत में रहने वाले सभी लोगों को जोड़ने वाली एक साझी विरासत और राष्ट्रीयता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके नेतृत्व में संघ ने पर्यावरण संरक्षण, जल संवर्धन और कुटुंब प्रबोधन जैसे समसामयिक विषयों को भी अपने कार्य का अभिन्न अंग बनाया है, जिससे संघ की स्वीकार्यता और प्रासंगिकता और बढ़ी है।
राष्ट्र-निर्माण की कर्मभूमि: अनुषांगिक संगठनों का ताना-बाना
संघ का प्रभाव केवल शाखाओं तक सीमित नहीं है। स्वयंसेवकों ने राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रेरणा लेकर विविध संगठन खड़े किए हैं। छात्रों के बीच अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP), श्रमिकों के लिए भारतीय मजदूर संघ (BMS), किसानों हेतु भारतीय किसान संघ (BKS), वनवासी क्षेत्रों में वनवासी कल्याण आश्रम, और समाज के वंचित वर्ग की सेवा के लिए सेवा भारती जैसे संगठन अपने-अपने क्षेत्र में अग्रणी हैं।
आलोचना, चुनौतियाँ और संघ का दृष्टिकोण
अपनी सौ वर्ष की यात्रा में संघ निरंतर वैचारिक हमलों का केंद्र रहा है। उस पर कई आरोप लगते रहे हैं, तथापि, संघ का स्पष्ट मत है कि वह ‘सर्व-पंथ समादर’ में विश्वास रखता है, लेकिन तुष्टीकरण और राष्ट्रीय पहचान को कमजोर करने वाले किसी भी प्रयास का विरोध करता है। संघ का मानना है कि भारत की पहचान उसकी सनातन संस्कृति से है और यही संस्कृति सभी को जोड़ती है।
शताब्दी से अनंत तक: भविष्य का भारत
संघ की सौ वर्षों की यात्रा केवल एक पड़ाव है, मंजिल नहीं। भविष्य का दृष्टिकोण और भी विराट और रचनात्मक है। यह एक ऐसे भारत का स्वप्न है, जहाँ जाति, पंथ या भाषा का कोई भेद न हो; जहाँ हर व्यक्ति अनुशासित, स्वावलंबी और राष्ट्र के प्रति समर्पित हो। यह भविष्य सनातन मूल्यों के ठोस आधार पर आधुनिक प्रौद्योगिकी और वैश्विक नेतृत्व के संगम से बनेगा। संघ का लक्ष्य केवल एक मजबूत संगठन बनाना नहीं, बल्कि एक ऐसा संगठित और अजेय समाज खड़ा करना है जो भारत को ‘परम वैभव’ के शिखर पर पुनर्स्थापित कर सके। आने वाली पीढ़ियाँ इस वट वृक्ष को और भी विशाल बनाएंगी, जिसकी शाखाओं से निकली जड़ें भारत की मिट्टी को और मजबूती से पकड़ेंगी और पूरी मानवता को अपनी शीतल छाया में आश्रय देंगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी गाथा संघर्ष, साधना और सिद्धि की एक अद्वितीय कहानी है। 1925 का वह छोटा-सा अंकुर आज एक विराट वटवृक्ष बन चुका है, जिसकी छाया में करोड़ों भारतीय अपने राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य की ओर आत्मविश्वास से अग्रसर हैं। यह शताब्दी महज एक उत्सव नहीं, बल्कि राष्ट्र साधना के अगले स्वर्णिम अध्याय की प्रस्तावना है।
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