प्रभुनाथ शुक्ल
दिल्ली का जनादेश राजनीतिक दलों, खासतौर पर भाजपा और कांग्रेस के लिए बड़ा सबक है। आम आदमी पार्टी की जीत को महज हार-जीत के तराजू में नहीं तौला जाना चाहिए। आप और केजरीवाल की जीत में दिल्ली के मतदाताओं की मंशा को समझना होगा। दिल्ली में कांग्रेस की जमीन खत्म हो गई है। उसकी बुरी पराजय पार्टी के नीति नियंताओं पर करारा थप्पड़ है। कभी दिल्ली कांग्रेस की अपनी थी। शीला दीक्षित जैसी मुख्यमंत्री ने दिल्ली को बदल दिया था। वहां के जमीनी बदलाव के लिए आज भी शीला दीक्षित को याद किया जाता है। लेकिन उनके जाने के बाद दिल्ली से कांग्रेस का अस्तित्व मिट गया। यह सोनिया और राहुल गांधी के लिए आत्ममंथन का विषय है। दिल्ली की जनता ने तीसरी बार केजरीवाल को केंद्र शासित प्रदेश की सत्ता सौंप साफ कर दिया कि जो सीधे जनता और उसकी समस्याओं से जुटेगा, दिल्ली पर उसी का राज होगा। भावनात्मक मसलों से वोट नहीं हासिल किए जा सकते। भाजपा ने दिल्ली पर भगवा फहराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी लेकिन मतदाताओं के बीच मुख्यमंत्री केजरीवाल की लोकप्रियता कम नहीं हुई। इस परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि सिर्फ मोदी और हिंदुत्व को आगे कर भाजपा हर चुनावी मिशन फतह नहीं कर सकती है। भाजपा 22 साल बाद भी अपना वनवास नहीं खत्म कर पाई।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं बचा। वह भाजपा की बुरी पराजय पर सीना भले ठोंक ले लेकिन उसके लिए आत्ममंथन का विषय है। दिल्ली जैसे राज्य में उसका सफाया बेहद चिंता की बात है। पांच सालों के दौरान आखिर दिल्ली में कांग्रेस और सोनिया गांधी गांधी का कुनबा कर क्या रहा था। दिल्ली में अपनी उपलब्धियां बताने के लिए उसके पास बहुत कुछ था, लेकिन कांग्रेस ने उसका भरपूर उपयोग नहीं किया। कांग्रेस की दुर्गति शीर्ष नेतृत्व को भले न हैरान करे लेकिन देश में बचे-खुचे उसके समर्थकों को उसकी पराजय बेहद खली है। बड़बोले राहुल गांधी ने सिर्फ मोदी को कोसने में अपनी सारी उर्जा खत्म कर दी। ट्यूटर हैंडिल की राजनीति से बाहर निकलना होगा। राहुल गांधी अपने नेतृत्व में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। राहुल गांधी खुद की दिल्ली में एक सीट नहीं निकाल पाए। अपनी बयानबाजी से संसद से लेकर सड़क तक सिर्फ मजाक बनते दिखे। प्रियंका गांधी की नजर यूपी पर भले है लेकिन दिल्ली को लावारिस छोड़ना कहां का न्याय है। प्रियंका गांधी हाल ही में वाराणसी में संत रविदास की जयंती पर पहुंच दलित कार्ड खेलने की कोशिश की। इसके पहले भी वह सोनभद्र के उम्भाकांड और दूसरे मसलों पर राज्य की योगी सरकार को घेरती रही हैं लेकिन खुद अपनी नाक नहीं बचा पाई। पूरा गांधी परिवार दिल्ली में है लेकिन एक भी सीट कांग्रेस नहीं निकाल पाई। पूरी की पूरी कांग्रेस सिर्फ गांधी परिवार की परिक्रमा में खड़ी दिखती है। शायद महात्मा गांधी ने सच कहा था कि कांग्रेस को अब खत्म कर देना चाहिए। जबतक कांग्रेस आतंरिक गुटबाजी से बाहर नहीं निकलती है उसकी पुनर्वापसी संभव नहीं है। कांग्रेस को गांधी परिवार की भक्ति से बाहर निकलना होगा। कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए सोनिया गांधी को कड़े फैसले लेने होंगे। युवा चेहरों को आगे लाना होगा। सिर्फ राहुल और प्रियंका गांधी को आगेकर कांग्रेस का कायाकल्प नहीं किया जा सकता।
भाजपा आठ सीट जीतकर भले कहे कि उसने कुछ खोया नहीं बल्कि 2015 के आम चुनाव से इसबार उसका प्रदर्शन अच्छा रहा है। लेकिन इस तर्क का कोई मतलब नहीं है। भाजपा की पूरी रणनीति फेल हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव की दिशा को शाहीनबाग की तरफ मोड़ने की कोशिश की लेकिन उसका परिणाम उल्टा पड़ गया।
चुनाव पूर्व आए सर्वेक्षणों में यह बात साफ हो गई थी कि दिल्ली की जनता की पहली पंसद केजरीवाल हैं। लोगों ने झाडू पर वोट करने का मूड बना लिया था। लेकिन इस बात को भाजपा नहीं समझ पाई। दिल्ली में आप मुखिया केजरीवाल ने दिल्ली वालों को मुफ्त की बिजली-पानी के साथ, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर स्कूल और शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराई है। झुग्गी वालों को कॉलोनियों की सुविधा दी है। जिसका परिणाम रहा कि जनता ने उन्हें वोट किया।
दिल्ली भाजपा और उसका केंद्रीय नेतृत्व ने चुनावी दिशा मोड़ उसे हिंदू बनाम मुस्लिम करने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। सीएए के खिलाफ शाहीनबाग में चल रहे मुस्लिम महिलाओं के प्रदर्शन को मुद्दा बनाया गया और केजरीवाल को आतंकवादी तक कहा गया। भाजपा सोचती थी कि शाहीनबाग को आगे कर चुनाव की दिशा बदली जा सकती है लेकिन धोखा खा गई। मुस्लिम मतों का पूरा ध्रुवीकरण आप की तरफ मुड़ गया, जिसकी वजह से कांग्रेस जैसी पार्टी एक भी सीट नहीं निकाल पाई। भाजपा यह चाहती थी कि दिल्ली के चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल कर दिया जाए लेकिन केजरीवाल ने सीधे हमले के बजाय जनता के बीच सिर्फ अपनी बात रखी। केजरीवाल ने आक्रामक राजनीति को हाशिए पर रखा। प्रधानमंत्री मोदी पर व्यक्तिगत हमलों से बचते रहे। सामने बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनाव हैं। अगर रणनीति में बदलाव नहीं हुआ तो बिहार और पश्चिम बंगाल की डगर और भी मुश्किल होगी। कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए यह चिंता का विषय है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)