सुशासन के तराजू पर दिल्ली के चुनाव नतीजे
bhopal,  Delhi
डॉ. अजय खेमरिया
 
दिल्ली में मिली चुनावी शिकस्त की इबारत बहुत स्पष्ट है। यह बीजेपी के लिये सामयिक महत्व रखती है। बेहतर होगा नए अध्यक्ष जेपी नड्डा उन बुनियादी विषयों को पकड़ने की पहल सुनिश्चित करें, जिन्हें पकड़कर अमित शाह ने सफलता के प्रतिमान खड़े किए। सत्ता के साथ आई अनिवार्य बुराइयों ने बीजेपी को भी अपने शिकंजे में ले लिया है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी मूल रूप से व्यक्ति आधारित चुनावी दल नहीं है। उसका एक वैचारिक धरातल और वैशिष्ट्य भी है। दिल्ली हो या झारखंड, मप्र, छतीसगढ़, राजस्थान सभी स्थानों पर वह बड़ी राजनीतिक शक्ति रखती है तथापि पार्टी की सूबों में निरन्तर हार, चिंतन और एक्शन प्लान की मांग करती है।
दिल्ली में पार्टी की यह लगातार छठवीं पराजय है। निःसंदेह मोदी-शाह की जोड़ी ने बीजेपी को उस राजनीतिक मुकाम पर स्थापित किया जहां पार्टी केवल कल्पना कर सकती थी। दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना बीजेपी और भारत के संसदीय लोकतंत्र में महज चुनावी जीत नहीं बल्कि एक बड़ी परिघटना है। अमित शाह और मोदी वाकई बीजेपी के अभूतपूर्व उत्कर्ष के शिल्पकार हैं। ये जोड़ी परिश्रम की पराकाष्ठा पर जाकर काम करती है। बावजूद बीजेपी के लिये अब सबकुछ 2014 के बाद जैसा नहीं है। यह समझने वाला पक्ष है कि दीनदयाल उपाध्याय सदैव व्यक्ति के अतिशय अबलंबन के विरुद्ध रहे। उन्होंने परम्परा और नवोन्मेष के युग्म की वकालत की।
 
सफलता की चकाचौंध अक्सर मौलिक दर्शन को चपेट में ले लिया करती है। बीजेपी के लिए मौजूदा चुनौती यही है जो चुनावी हार-जीत से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। दिल्ली, झारखंड, मप्र, छतीसगढ़, राजस्थान में मिली शिकस्त यही सन्देश देती है कि वक्त के साथ बुनियादी पकड़ कमजोर होने से आपकी दिव्यता टिक नहीं पायेगी। बीजेपी की बुनियाद उसकी वैचारिकी के अलावा उसका कैडर भी है। यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है कि पार्टी के अश्वमेघी विजय अभियान के कदमताल में उसका मूल कैडर बहुत पीछे छूटता जा रहा है। कभी यही गलती देश की सबसे बड़ी और स्वाभाविक शासक पार्टी कांग्रेस ने भी की थी। राज्यों के मामलों को गहराई से देखा जाए तो मामला कांग्रेस की कार्बन कॉपी प्रतीत होता है। दिल्ली में मनोज तिवारी का चयन हर्षवर्धन, विजय गोयल, मीनाक्षी लेखी जैसे नेताओं के ऊपर किया जाना किस तरफ इशारा करता है? बेशक मोदी और शाह के व्यक्तित्व का फलक व्यापक और ईमानदार है। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि करोड़ों लोगों ने बीजेपी को अपना समर्थन वैचारिकी के इतर सिर्फ शासन और रोजमर्रा की कठिनाइयों में समाधान के नवाचारों के लिए भी दिया है। राज्यों में जिस तरह के नेतृत्व को आगे बढ़ाया जा रहा है वे न मोदी-शाह की तरह परिश्रमी हैं न ही उतने ईमानदार।
 
मप्र, छतीसगढ़, राजस्थान, झारखंड की पराजय का विश्लेषण ईमानदारी से किया जाता तो दिल्ली में तस्वीर कुछ और होती। हकीकत यह है कि राज्यों में बीजेपी अपवादस्वरूप ही सुशासन के पैमाने पर खरी उतर पाई है। इन राज्यों में न बीजेपी का कैडर अपनी सरकारों से खुश रहा न जनता को नई सरकारी कार्य संस्कृति का अहसास हो पाया। मप्र, छतीसगढ़, राजस्थान, झारखंड में नारे लगते थे वहां के मुख्यमंत्रियों की खैर नहीं, मोदी तुमसे वैर नहीं। इसे समझने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई।
 
यह सही है कि राज्य दर राज्य पराजय के बावजूद बीजेपी का वोट प्रतिशत कम नहीं हुआ है लेकिन लोगों के इस भरोसे को सहेजने की ईमानदारी भी दिखाई नहीं दे रही है। पार्टी वामपंथी और नेहरूवादी वैचारिकी से लड़ती दिखाई देती है लेकिन इसके मुकाबले के लिये क्या संस्थागत उपाय पार्टी की केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा किये गए हैं? पार्टी ने सदस्यता के लिये ऑनलाइन अभियान चलाया लेकिन उस परम्परा की महत्ता को खारिज कर दिया, जब उसके स्थानीय नेता गांव, खेत तक सदस्यता बुक लेकर 2 रुपए की सदस्यता करते थे और परिवारों को जोड़ते थे। जिन राज्यों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई, वहां आज वे चेहरे नजर नहीं आते जो सरकार के समय हर मंत्री के कहार बने रहते थे। नतीजतन राज्यों में बीजेपी का कैडर ठगा रह जाता है।
 
जिस परिवारवाद पर प्रधानमंत्री प्रहार करते हैं, वह बीजेपी में हर जिले में हावी है। हर मंडल और जिलास्तर पर चंद चिन्हित चेहरे ही नजर आएंगे जो संगठन, सत्ता, टिकट, कारोबार यानी सब जगह हावी हैं। यह समझने की जरूरत है कि आज का भारत खुली आंखों से सोचता है। वह 370, आतंकवाद, कश्मीर, तुष्टिकरण, पाकिस्तान से निबटने के लिए मोदी में भरोसा करता है तो यह जरूरी नहीं कि मोदी के नाम पर अपने स्थानीय बीजेपी विधायक के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को भी स्वीकार करे। इस नए भारत को मोदी की तरह पार्टी के स्थानीय नेतृत्व को भी समझना होगा।
 
 
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
Dakhal News 13 February 2020

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