जनादेश का आशय : जनता क्या चाहे?
bhopal,Meaning of Mandate,What do people want?

गिरीश्वर मिश्र

इसमें कोई संदेह नहीं कि गोवा के सागर तट, उत्तराखंड के पहाड़, उत्तर प्रदेश का गंगा-जमुनी मैदान और पूर्वोत्तर भारत में पर्वत-घाटी वाले मणिपुर से आने वाले चुनाव परिणामों से भारतीय जनता पार्टी की छवि राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त और ऊर्जावान राजनैतिक दल के रूप में निखरी है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक नायक के रूप स्वीकृति पर फिर मुहर लगी है। इस तरह के स्पष्ट राष्ट्रव्यापी जन-समर्थन को मात्र संयोग कह कर कमतर नहीं आंका जा सकता और न इसे जाति, धन और धर्म के आधार पर ही समझा जा सकता है।

इसे दिशाहीन विपक्ष की मुफ्त की सौगात भी कहना उचित न होगा क्योंकि जहां पंजाब के परिणाम वहां की सरकार के विरुद्ध गए और विपक्ष को पूरा अवसर मिला था, इसके ठीक विपरीत भाजपा शासित प्रदेशों में मिले मुखर जनादेश शासन में आम जन के भरोसे और विश्वास को प्रकट करते हैं। साथ ही यह भी संकेत कर रहे हैं कि उन्हें अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ आगे भी चलने की राह खुली दिख रही है। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार निश्चित रूप से विस्तृत हुआ है और छोटी हदों को पार कर बड़ी अस्मिताओं की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति भी उभरी है।

बहुत हद तक अप्रत्याशित बढ़त वाला भाजपा का यह ताजा चुनावी प्रदर्शन तात्कालिक रणनीति और प्रचार से अधिक सघन जनसम्पर्क तथा समाज के हाशिए के लोगों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों की सक्रियता, उपलब्धता और प्रभाविकता को भी दर्शाता है। आधार संरचनाओं का बड़े पैमाने पर विस्तार, माफिया और भ्रष्टाचार पर बहुत हद तक नियंत्रण और अराजक तत्वों पर नकेल कसने जैसे कठोर उपाय उत्तर प्रदेश जैसे विशाल और जनसंख्या बहुल राज्य के लिए ऐतिहासिक महत्व के कहे जा सकते हैं। यद्यपि बहुत-सी मुश्किलें अभी भी हैं, बिजली, पानी और सड़क जैसी आम जरूरत की सुविधाओं के बढ़ने से लोग जीवन को संचालित करने में सुभीता भी महसूस करने लगे हैं।

राष्ट्र की एकता, उसके गौरव और उसकी सामर्थ्य को लेकर प्रधानमंत्री के कटिबद्ध प्रयास से जनता का मन भी बदला है और सोच में भी बदलाव आया है। इस बदलाव के पीछे मोदी जी की अनथक संलग्नता की बड़ी भूमिका है जो इतिहास और वर्तमान में प्रधानमंत्री के स्तर पर दूर-दूर तक नहीं दिखती है। प्रेरणा देना और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर पहल और सक्रियता का अद्भुत उदाहरण पेश कर मोदी जी ने आम लोगों के मन में साख अर्जित की है। कोरोना काल की विभीषिका को भारत ने जिस क्षमता के साथ संभाला और राजनैतिक कोलाहल को नजरअंदाज किया, उसने सबको निरुत्तर कर दिया। जनस्वास्थ्य की दो साल लंबी चली यह भीषण चुनौती देश में कई मोर्चों पर सफलतापूर्वक लड़ी गई, यद्यपि उस दौरान कई खामियां भी उजागर हुई थीं जो प्रशासनिक कमजोरी और लोभ-लिप्सा के विमानवीकृत रूप को व्यक्त करती हैं। वे सावधान करती हैं कि सतत पर्यवेक्षण और सतर्कता का कोई विकल्प नहीं है।

उत्तरकरोना काल में भी शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक जगत की मुश्किलों को संभालते हुए सामान्य जीवन को पटरी पर ले आना कठिन काम है। बहुत-सी परियोजनाओं में अंतराल और ठहराव आ गया था। इन सब पर केंद्रीय नेतृत्व की नजर है। कई सुधार किए जा रहे हैं और जनोपयोगी परियोजनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। यह संतोष की बात है कि कोरोना और उसके बाद के बनते-बिगड़ते अंतरराष्ट्रीय घटना चक्र से आज जहां सारी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है, भारत अपनी स्थिति को काफी कुछ संभाल सकने में कामयाब है।

गौरतलब है कि वर्तमान प्रधानमंत्री कई वर्षों से ‘मन की बात’ के साथ लगातार साप्ताहिक जन-संवाद का अद्भुत प्रयोग कर रहे हैं। इसके प्रत्येक आयोजन में सकारात्मक विचार और उदाहरण के साथ आम जन को प्रेरित करने का उपक्रम अनवरत जारी है। मोदी जी आम जनों से जुड़ने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं और सब कुछ के आगे देश-धर्म के लिए जुटने का उनका सतत आग्रह सामाजिक मूल्यबोध को अंगीकार करने की दिशा में आम लोगों को उन्मुख करने वाला होता है। जनाभिमुख नेतृत्व की यह ऐतिहासिक पहल और मिसाल है। इस तरह का संवाद कुशल नेतृत्व जनता के मर्म को समझता भी है और दृढ़तापूर्वक अपना संदेश उन तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। विपक्ष की तीखी आलोचनाओं के बीच जोखिम उठाते हुए मोदी जी ने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक महत्व के अनेक नीतिगत फैसले लिए और उनको दृढ़ता से लागू किया। कोरोना काल में कई प्रदेशों में चुनाव संपन्न हुए और प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं को बहाल रखने में देश कामयाब रहा।

शिक्षा की व्यवस्था को लेकर ऊहापोह बना रहा और आभासी प्लेटफॉर्म पर बड़े पैमाने पर ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था से काम चलाने का प्रयास हुआ जिसका मिश्रित परिणाम प्राप्त हुआ। कोर्ट-कचहरी, दफ्तर की काम-काजी दुनिया भी तेजी से डिजिटल होने लगी। आर्थिक रूप से विकास की मंजिलों की ओर आगे बढ़ती एक विश्वस्तरीय बड़ी अर्थव्यवस्था के स्वप्न के साथ हाशिए के समाज की स्थिति को सुधारने के संकल्प की दोहरी चुनौती के लिए सरकार की प्रकट प्रतिबद्धता ने जनता को भरोसा दिलाया है। देश के उत्थान का यह विस्तृत फलक सभी साझा कर रहे हैं और स्वतंत्र भारत की शताब्दी के प्रति समुत्सुक हो रहे हैं। देश के जीवन में अल्प विराम के बाद गतिशीलता आने के लक्षण स्पष्ट दिख रहे हैं।

यहां इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि मतदाता की समझदारी बढ़ने के साथ सरकार के दायित्व के क्षेत्र भी जनता की तीक्ष्ण निगरानी के दायरे में आ रहे हैं। प्रशासन तंत्र की औसत चुस्ती-फुर्ती अभी भी संतोषजनक नहीं हो सकी है और उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्थाएं न केवल अस्त-व्यस्त हैं बल्कि उनमें बड़े दिनों से व्यापक सुधार की प्रतीक्षा बनी हुई है। हौले-हौले कुछ कदम उठाए गए हैं पर ठहराव और जड़ता इतनी गहरे पैठी है कि अभी भी मर्ज कम नहीं हो सका है।

स्वतंत्र भारत में तुष्टीकरण की राजनीति से प्रलोभनों का जाल फैलता गया और इसके फौरी राजनैतिक फायदे भी उठाए जाते रहे हैं परंतु समस्याओं के प्रति तटस्थता के चलते यथास्थितिवाद को तरजीह मिलती रही। यह मानना कि समय सभी समस्याओं को कभी न कभी स्वत: हल कर देगा दुराशा ही होती है। कश्मीर में अनुच्छेद 370 के प्रति जिस नजरिये को अपनाया जाता रहा उससे सारी परिस्थिति किस कदर जटिल होती गई यह सबके सामने है। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें कुछ कुछ काम होता रहा पर उससे आने वाला सतही बदलाव स्थायी सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला सका।

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव मनाए जाने के अवसर पर ‘स्वतंत्र’ महसूस करने के लिए अब तक चली आ रही औपनिवेशिक कार्य प्रणाली की जकड़नों को पहचान कर दूर करना होगा। पाश्चात्य चिंतन और कार्य शैली हमारे देश काल और समाज की प्रकृति के अनुकूल न होने पर भी बाध्य बनी हुई है। वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के मोहक और आकर्षक मुहावरों के आवरण में आज एक नए ढंग का उपनिवेशीकरण जायज ठहराया जाने लगा है और उसी की राह पर चलने पर बल देते हुए अनिवार्य प्रतिबंध खड़े हो रहे हैं। शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और कला हर क्षेत्र में आज पश्चिम से आगत मानक ही निर्णायक बन रहे हैं। हम अपनी समस्याओं को पहचानने और समाधान ढूंढ़ने के लिए भी परनिर्भर होते जा रहे हैं। इसके दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं और अनेक संस्थाएं अव्यवस्था का शिकार भी होती जा रही हैं और उनकी सृजनात्मकता और गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। उनके स्वभाव के साथ छेड़छाड़ को राजनैतिक हित की रक्षा दृष्टि से किसी भी तरह से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

इसी तरह भौतिक और सामाजिक परिवेश में व्याप्त हो रहे प्रदूषण, महंगाई , बेरोजगारी, असुरक्षा, भ्रष्टाचार और हिंसा जैसे जीवनरोधी प्रक्रियाओं के विरुद्ध प्रभावी और ठोस कदम उठाने ज़रूरी हो गए हैं। वर्तमान जनादेश इन सभी समस्याओं से पार पाने के लिए आवाह्न है। जनता को भरोसा है कि इनसे पार पाना मुमकिन है बशर्ते सरकारें बनाने और चलाने के अनुष्ठान से आगे बढ़ कर सुशासन द्वारा प्रजा की भलाई की जाय।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

Dakhal News 16 March 2022

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