देश की सबसे बड़ी अदालत के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविन्द बोबड़े ने अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए संस्थागत मध्यस्थता की जरूरत जताई है। देश की राजधानी दिल्ली में फिक्की के समारोह में अदालतों में मुकदमों के अंबार पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने यह सुझाव दिया। इसमें कोई दोराय नहीं कि मुकदमों के बोझ तले दबी न्यायिक व्यवस्था को लेकर न्यायालय, सरकार, गैरसरकारी संगठन और आमजन सभी गंभीर हैं। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनावश्यक पीएलआर दाखिल करने की प्रवृत्ति पर सख्त संदेश देकर आए दिन लगने वाली पीएलआर पर कुछ हद तक अंकुश लगाने में सफल रह चुके हैं। यह सही है कुछ पीएलआर अपने आपमें मायने रखती हों पर पीएलआर दाखिल करने की सुविधा का दुरुपयोग भी जगजाहिर है और इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश महोदय को तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी थी और उसका असर भी देखने को मिल रहा है। लोक अदालतों के माध्यम से भी आपसी समझाइश से मुकदमों को कम करने के प्रयास जारी हैं। लोक अदालतों का आयोजन अब तो नियमित होने लगा है।
इस दिशा में राजस्थान सरकार का मोटर व्हीकल एक्ट से जुड़े करीब दस हजार मुकदमों को लोक अदालत के माध्यम से समाप्त करने का निर्णय भी महत्वपूर्ण है। हालांकि मोटर व्हीकल एक्ट के तहत विचाराधीन मुकदमों को सरकार द्वारा वापस लेने का संदेश गलत नहीं जाना चाहिए व दोषियों को भी यह समझ लेना चाहिए कि उन्हें एक सभ्य नागरिक होने का दायित्व उठाते हुए कानून पालन के अपने कर्तव्य का निर्वहन करन चाहिए।
देश के न्यायालयों में लंबित मुकदमों के गणित को लोकसभा में पिछले दिनों लिखित उत्तर में प्रस्तुत आंकड़ों से समझा जा सकता है। राष्ट्र्रीय न्यायिक डाटा ग्रीड के आंकडों के अनुसार 3 करोड़ 14 लाख न्यायिक प्रकरण देश की निचली एवं जिला अदालतों में ही लंबित चल रहे हैं। एक जानकारी के अनुसार देश की सर्वोच्च अदालत में ही 59 हजार 867 मामले लंबित हैं। आंकड़ों का सबसे बड़ा सच यह है कि देश की अदालतों में करीब एक हजार मामले 50 साल से लंबित हैं तो करीब दो लाख मामले 25 साल से विचाराधीन हैं। 44 लाख 76 हजार से अधिक मामले देश की 24 हाईकोर्ट में लंबित हैं। करीब पौने तीन करोड़ मामले देश की निचली अदालतों में विचाराधीन हैं।
देश के वर्तमान और पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की चिंता से पुराने मामलों के निपटारे की कार्ययोजना भी बनी है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने पुराने मामलों के लंबित होने की गंभीरता को समझा। सर्वोच्च न्यायालय में प्रतिदिन 10 पुराने मामलों को सुनवाई के लिए विशेष बेंच के सामने रखने के निर्देश निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने दिए थे।
कुल लंबित तीन करोड़ से अधिक मामलों में से करीब 14 प्रतिशत मामले गत दस सालों से लंबित हैं। जारी रिपोर्ट के अनुसार 10 साल से अधिक लंबित मामलों में सर्वाधिक 9 लाख 43 हजार से अधिक मामले अकेले उत्तर प्रदेश में हैं तो बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र्, गुजरात, ओडिसा आदि प्रदेशों में दस साल से अधिक पुराने मामले लाखों की संख्या में हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न बेंचों में अब 34 न्यायमूर्ति मुकदमों का निस्तारण कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की पहली प्राथमिकता पांच साल से पुराने लंबित मामलों की शीघ्र निस्तारित करने की है। सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि मुकदमों के अंबार को कम करने के लिए अत्यंत इमरजेंसी को छोड़कर कार्य दिवस पर छुट्टी न ली जाएं। मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने संस्थागत मध्यस्थता की जो आवश्यकता महसूस की है उसको इस मायने में भी समझा जा सकता है कि हमारी सनातन परंपरा और ग्रामीण व्यवस्था में पंच परमेश्वरों की जो भूमिका थी आज उस भूमिका को पुनर्स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। यातायात नियमों की अवहेलना, मामूली कहासुनी, मामूली विवाद आदि के प्रकरणों को चिह्नित कर इनकी सुनवाई कर तत्काल निर्णय की जरूरत है। ऐसे मामलों में अनावश्यक अपील का प्रावधान भी न हो। ऐसे करके मुकदमों के बोझ को कम किया जा सकता है। राजस्व के मामलों के अंबार को भी पंच परमेश्वरों या अन्य दूसरी तरह के निस्तारण का मैकेनिज्म बनाकर काफी हद तक कम किया जा सकता है। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि हाल ही में राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की जारी रिपोर्ट के मुताबिक बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। इस पर ब्रेक लगाने के लिए भी संस्थागत मध्यस्थता जरूरी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)