कार्पोरेट की महफिलों में राजनीतिक-मुजरा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

उमेश त्रिवेदी

देश की जनता के लिए मृग-मरीचिका बने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिनों की तरह उनका चुनाव-सुधार का वादा भी गफलतों में उलझता जा रहा है। चुनाव-आयोग ने इलेक्टोरल-बॉण्ड की पारदर्शिता के सवाल पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के सामने कुछ ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनके जवाब चुनाव-सुधार के उनके सारे दावों को खोखला साबित कर रहे हैं। इलेक्टोरल-बॉण्ड के नाम पर चुनाव-सुधार के रंगमंच पर मोदी-सरकार के राजनीतिक-एकांकी का कमजोर कथानक बिखरने लगा है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने चुनावी-चंदे की पारदर्शिता और नैतिकता को काले परदों के पीछे ढकेल  दिया है। 

अरुण जेटली चुनाव-चंदे देने वाली कम्पनियों को कई छूट प्रदान कर रहे हैं। मोदी-सरकार ने कार्पोरेट घरानों पर चंदा देने की अधिकतम सीलिंग भी खत्म कर दी है। अब राजनीतिक दल कार्पोरेट-घरानों से भरपूर पैसा भी लेंगे और उनका नाम भी नहीं बताएंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी वित्त मंत्री की इस पहल को चुनाव-सुधार के खिलाफ मानते हैं। उनका मत है कि जनता को राजनीतिक-दलों को मिलने वाले हर प्रकार के चंदे का ब्यौरा जानने का हक है। लेकिन जेटली के नए प्रस्तावों ने पारदर्शिता के इस सवाल को गोपनीयता की कैद में जकड़ दिया है। मोदी-सरकार यह व्यवस्था भी कर रही है कि राजनीतिक दल चुनाव आयोग को इलेक्टोरल-बॉण्ड की जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं होंगे। विरोधाभास यह है कि दलों के लिए 2000 से ज्यादा  नगद चंदा देने वाले व्यक्ति और 20 हजार से ज्यादा नगद चंदा देने वाली कंपनियों का नाम बताना जरूरी है। चुनाव-चंदे के मौजूदा कानून में बदलाव के बाद राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले कार्पोरेट-घराने उनका नाम बताने के लिए बाध्य नहीं होंगे।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भ्रष्टाचार विरोधी एजेण्डे के महत्वपूर्ण बिन्दुओं में राजनीतिक-चंदे के सवाल को सबसे ऊपर रखा है। मोदी मानते हैं कि देश को काले धन के जंजाल से मुक्त करने के लिए राजनीतिक-चंदे को नियोजित और नियंत्रित करना जरूरी है। लेकिन मोदी राजनीति को काले धन से मुक्त करने की बात करते वक्त यह भूल जाते हैं कि 2014 में सबसे महंगा चुनाव लड़ने वाली पार्टी के रूप में उनकी पार्टी भाजपा का ही नाम दर्ज है। चुनाव आयोग के ताजा आंकड़ों के मान से भाजपा ने 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 714 करोड़ रुपए खर्च किए थे। जबकि इसी दरम्यान कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपए व्यय किए थे। चुनाव-आयोग की बंदिशों के कारण राजनीतिक दलों के लिए चुनाव-अभियानों में होने वाले खर्चों का ब्यौरा देना मजबूरी है, लेकिन उन पर यह बंदिश नहीं है कि चुनाव में खर्च होने वाले ये सैकड़ों करोड़ रुपए उन्होंने कहां से और कैसे जुटाए हैं। जनवरी 2017 में एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 11 वर्षों के दरम्यान कांग्रेस में 83 प्रतिशत और भाजपा में 63 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोतों से जमा हुआ है। चुनाव-फंडिंग के इन अज्ञात स्रोतों को खंडित करने की गरज से ही वित्तमंत्री ने चंदे की सीमा 20 हजार से घटाकर 2 हजार की थी, लेकिन इलेक्टोरल-बॉण्ड को गोपनीयता का कवच देकर उन्होंने चुनावी-चंदे की धांधलियों को पनाह देने का काम किया है। इस प्रावधान के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे खुद-ब-खुद खारिज हो जाते हैं कि वो चुनाव-अभियानों में पारदर्शिता लाना चाहते हैं।   

राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों और चुनाव अभियानों में काले धन की खपत की लाइलाज बीमारी जग-जाहिर है। इस ऐतिहासिक तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि नरेन्द्र मोदी ने राजनीति को मेगा-शो के इवेंट में तब्दील कर दिया है। चुनाव आंकड़े कहते हैं कि 2014 में मोदी ने सबसे महंगा लोकसभा चुनाव लड़ा था। प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के सत्तारोहण के बाद सेवा के सामाजिक माध्यम समझी जाने वाली राजनीति मेगा-शो की इवेंट में तब्दील हो चुकी है। पिछले सप्ताह गुजरात के सूरत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भव्य रोड-शो इस बात की तस्दीक करता है कि अब राजनीति भी सोने की खनक पर मुजरा करने के लिए मजबूर हो चली है।[लेखक उमेश त्रिवेदी सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

Dakhal News 5 July 2017

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