Dakhal News
26 April 2024उमेश त्रिवेदी
कांग्रेस सहित भारत के अधिकांश विपक्षी दल एक राजनीतिक-शून्यता के आत्मघाती मोड़ की ओर बढ़ रहे हैं, देश का मीडिया केन्द्र-सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यशोगान और उपलब्धियों से पटा पड़ा है। मोदी-सरकार के कामकाज के प्रति अधिकांश राजनीतिक समीक्षक और विश्लेषकों का सुर सजीला और रवैया लचीला है। शासन-प्रशासन और राजनीति में उपलब्धिय़ों के कैनवास के किसी भी कोने पर खोट का एक छोटा सा काला स्पॉट भी इन लोगों को नजर नहीं आ रहा है... मोदी-सरकार के शासन-प्रशासन की दीवारें इतनी पाक-साफ और पोशीदा है। मीडिया के छोटे-बड़े सभी सर्वेक्षण और मीमांसाएं नरेन्द्र मोदी के आगे नतमस्तक हैं। बकौल मीडिया मोदी के समर्थन में जन-भावनाओं का यह उफान हवाई कल्पना नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत है। देश की जानी-मानी और प्रतिष्ठित एजेन्सियों ने व्यावसायिकता की खरी कसौटियों पर इस सच को तलाशा है।
इन सर्वेक्षणों की एक खूबी यह भी है कि शासन-प्रशासन में मोदी-सरकार के साथ दौड़ रही कमी, कमजोरियों और कमतरी की कहानियों को रेशमी लहजों के मुलायम धागों में पिरो कर शो-केस में बिठा दिया गया है। तीसरी वर्षगांठ पर सफलता और असफलताओं का यह 'हायपर' और 'हिपनोटिक' प्रसारण मोदी-सरकार के राजनीतिक-प्रबंधन की समग्रता और सम्पूर्णता को रेखांकित करने वाला है। यह जताता है कि राजनीति और प्रशासन से जुड़े महीन तत्वों पर भी उनकी नजर कितनी पैनी और पारंगत है? तीसरी वर्षगांठ पर नरेन्द्र मोदी राजनीतिक विधाओं के 'परफेक्शनिट' बन कर उभरे हैं।
यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि इस वक्त भारतीय राजनीति में उनके मुकाबिल खड़ा होने वाला पक्ष-विपक्ष में कोई नेता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। दिलचस्प यह है कि सफलताओं की सीढ़ियों पर, इस मुकाम पर पहुंचने के बाद भी, उनकी मुठ्ठी अभी ढीली नहीं पड़ी है। केन्द्र के अलावा देश के 17 राज्यों में भाजपा या उनकी सरकारें काम कर रही हैं। मोदी की रणनीति यह है कि 2019 तक बाकी दस राज्यों में भाजपा का परचम लहराने लगे। मौजूदा परिदृश्य में यह लक्ष्य भारतीय जनता पार्टी की पहुंच के बाहर नहीं लगता है, क्योंकि विपक्ष व्दारा प्रस्तुत चुनौतियां हर दिन रिस रही हैं। नरेन्द्र मोदी ने देश की राजनीति को सैध्दांतिकता और वैचारिकता के उन अमूर्त ठिकानों की ओर मोड़ दिया है, जहां असमंजस और संशय में घिरे उनके विरोधियों की आवाजें कहने-सुनने से पहले गाफिल होकर गिर पड़ती हैं। शब्दों के तरकश भोंथरे हो जाते हैं। जात-पांत, ठौर-ठिकानों, मठ-कबीलों की भूल-भुलैया में फंसी विपक्ष की राजनीति वैचारिक शून्यता के पार रास्ते नहीं देख पा रही है। यह वैचारिक-शून्यता भाजपा विरोधियों की रणनीतिक चूक और सबसे बड़ी कमजोरी है, जबकि भाजपा ने हिन्दुत्व की वैचारिकता को एजेण्डे में संजोकर देश की राजनीति को लोगों के दिलो-दिमाग में पिरो दिया है। लेकिन प्रतिपक्ष की यही वैचारिक शून्यता देश के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हिन्दुत्व की वैचारिक धुरी पर भाजपा की राजनीति के आगे कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल असहाय खड़े हैं। चुनाव के एटीएम में मुस्लिम कार्ड के 'इनवेलिड' हो जाने के बाद भले ही भाजपा-विरोधियों को कोई रास्ता नहीं सूझ पड़ रहा हो, लेकिन विपक्ष की इन अबूझ स्थितियों से पैदा शून्य भाजपा के लिए भी उतना ही खतरनाक है। राजनीतिक मंच पर इकलौते अभिनेता होने के नाते देश के समूचे ऑडियंस की अपेक्षाओं को पूरा करने का बोझ भी नरेन्द्र मोदी के कंधों पर आ पड़ा है। मोदी-सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर राजनीतिक परिदृश्य में सिमटते-सिकुड़ते विपक्ष के हालात पर तालियां बजाने से पहले राजनीतिक-शून्य के खतरों को समझना जरूरी है। लोगों की सारी राजी-नाराजी और अपेक्षाओं के केन्द्र अब आप हैं। कांग्रेस की पुरानी गलतियों को उकेर कर इतिहास के पन्नों की ढाल लंबे समय तक काम में आने वाली नहीं है। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए नरेन्द्र मोदी को अपनी राजनीति को ऩए 'मोड' में डालना होगा। एकतरफा और निरंकुश वैचारिक-आग्रह के खतरों को समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में घटित उन्माद की घटनाएं इन खतरों की ओर इशारा कर रही हैं।[ लेखक उमेश त्रिवेदी सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। ]
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31 May 2017
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