निजी खबर चैनल -नंबर वन पर रहने की हवस...
टॉप एंकर

कल्पना कीजिए....  एक टॉप का एंकर छह महीने तक गायब रहे, फिर एक दिन अपना चैनल लेकर आए और एक ही सप्ताह में अपने चैनल को सबसे ज्यादा इक्यावन फीसद दर्शक खींचने वाला बताए तो आप क्या कहेंगे ? इन आंकड़ों को देखकर कोई भी चौंकेगा। एक चैनल ने इस आंकड़े को  खारिज ही कर दिया। एक वक्त में एक ही चैनल टॉप पर हो सकता है। फिर भी सभी अपने को नंबर वन सिद्ध करने वाले आंकड़े दिखाते रहते हैं। जाहिर है कि सभी कुछ न कुछ गड़बड़ करते हैं वरना यह संभव नहीं कि एक ही सप्ताह में सब नंबर वन पर रहें। नंबर वन पर रहने की हवस इसलिए है क्योंकि दर्शक संख्या के हिसाब से ही इनको विज्ञापनों के रेट मिलते हैं। निजी चैनलों की कमाई का जरिया विज्ञापन ही होते हैं। अगर विज्ञापन न हों तो निजी खबर चैनल दो दिन में खत्म हो जाएं।खबर जुटाना एक महंगा काम है। अगर आपकी कमाई अधिक है तभी आप फील्ड रिपोर्टरों, कैमरामैनों और ओबी वैनों की तामझाम रख सकते हैं और विविध खबरें जुटा सकते हैं वरना नहीं। इसीलिए चैनल विविध खबरों की जगह ‘‘ओपिनियनों और चरचाओं’ से काम चलाते हैं। अगर बहुत हुआ तो पांच मिनट में पचास या दस मिनट में सौ खबरों की ‘‘कटपीस’ बांचकर काम चलाया जाता है जिनमें खबर पलभर आकर गायब हो जाती है। एक ही खबर को खींचतान कर, दिनभर बजाकर, बहुत सी खबरों की कमी को, पूरा किया जाता है और शाम से प्राइम टाइम तक किसी एक खबर की राजनीति पर बहस चलाके खबर चैनल होने का कर्तव्य पूरा किया जाता है। अगर किसी चैनल को किसी से किसी का ‘‘एक्सपोजे’ मिल गया या स्टिंग हाथ लग गया है तो उसी में दो-तीन दिन निकाले जा सकते हैं। इसीलिए हमारे चैनलों का रवैया किसी एनजीओ या एक्टिविस्ट जैसा नजर आरहा है कि अपने लक्षित दल या नेता को पहले नंगा करो; इसमें भी निशाने पर प्राय: विपक्ष ही रहता है, सत्ता पक्ष की सिर्फ उपलब्धियां ही गिनाई जाती हैं। फिर कहो कि कहां छिपा है? आकर बताता क्यों नहीं क्या सचाई है? यह एंकरों का ‘‘एक्टिविज्म’ है।कंपटीशन भी यहीं हैं : तरह-तरह के एक्सपोजे दिखाने में सब लगे हैं, लेकिन एक चैनल उनको नरम भाषा में दिखाता है और दूसरा चैनल गरम भाषा में दिखाता है तो बताइए कौन-सा चैनल ज्यादा देखा जाएगा? जाहिर है कि गरम भाषा वाला चैनल ही ज्यादा पसंद आएगा। अगर एक अंग्रेजी चैनल दिनभर लालू के या चिदम्बरम के या थरूर के पीछे पड़ा रहता है और उसका एंकर लालू को कहता है कि वह घर में बंद हो गए हैं और हमारा चैनल देख रहे हैं या कहता है कि ‘‘थरूर तुम; चारों तरफ से घेर लिए गए हो, अब तुम बचके नहीं जा सकते’ तो बताइए उसे अधिक दर्शक मिलेंगे कि नहीं? आजकल टीवी की खबरों के दर्शकों का मिजाज भी बिगड़ गया है। उनका मिजाज एक्टिविस्ट एंकरों ने बिगाड़ा है। वे बदल गए हैं। अब उनको सिर्फ ‘‘सूखी सूचना’ नहीं चाहिए। उनको हर पल नए से नया भंडाफोड़ चाहिए। हर वक्त एक खलनायक चाहिए। हर बड़े आदमी संदिग्ध है। उसे नंगा किया जाना चाहिए। यह ‘‘सूडो समाजवाद’ है,‘‘न्याय की चाहत’ है, जिसे हर एक्सपोजे के जरिए एंकरों ने दिन-रात बेचा है। समाजवाद लाना तो बेहद कष्टकर और फिलहाल असंभव-सा है, लेकिन एक-दो घंटे के आनंदकारी ड्रामे में एक प्रकार का ‘‘सूडो समाजवादी मजा’ तो पैदा किया जा सकता है। एंकर आजकल यही करते हैं। असली न सही तो ‘‘सूडो समाजवाद’ ही सही। इसी का बाजार है।विपक्ष ही खलनायक है/विपक्ष ही सारी समस्याओं की जड़ है/ विपक्ष से बड़ा कोई पापी नहीं है/ सारे भ्रष्टाचार के काम विपक्ष के नाम है/ सत्तर साल से ऐसा ही होता चला आया है /कभी कहा जाता है कि साठ साल से ऐसा ही होता चला आया है अब आकर उस पर रोक लगी है।बाहुबली ने पंद्रह दिन में पंद्रह सौ करोड़ कमा लिए। मीडिया ने उसे जिस तरह से उठाया वैसा कम ही फिल्मों को नसीब हुआ। पंद्रह दिन पहले से पंद्रह दिन बाद तक उसको जमाया जाता रहा। पिछले दिनों चार दशमलव आठ प्रतिशत के हिसाब से प्रिंट मीडिया बढ़ा है दुनिया के हर देश में प्रिंट मीडिया पिट रहा है कम छप रहा है खत्म हो रहा है, लेकिन हिंदुस्तान में वह बढ़ रहा है। कारण क्या हैं? सर्वे ने सीधे कारण तो नहीं बताए, लेकिन संकेत दे दिए कि क्या-क्या कारण हो सकते हैं।

Dakhal News 22 May 2017

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