बुंदेलखंड को फिर दाल का कटोरा बनाने की कवायद
bhopal, The exercise to make Bundelkhand a bowl of lentils again
-सियाराम पांडेय 'शांत' 
 
बुंदेलखंड का कालिंजर किला अपनी ऐतिहासिकता और धार्मिकता के लिए तो मशहूर है ही, लेकिन अब वह अरहर सम्मेलन के लिए भी चर्चा में है। इस सम्मेलन का महत्व इसलिए भी है कि यह विश्व दलहन दिवस (10 फरवरी) के अवसर पर कटरा कालिंजर में हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 नवम्बर, 2015 को इटली में आधिकारिक रूप से वर्ष 2016 को अंतरराष्ट्रीय दलहन वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की थी। कालिंजर सम्मेलन में अतिथि कृषि वैज्ञानिकों का स्वागत परंपरागत फूलों की जगह चना, अरहर, सरसों और मटर आदि के फूल और पत्तियों से बने पुष्पगुच्छों से किया गया। सवाल उठता है कि दलहन उत्पादन को लेकर सम्मेलन एक ही जिले में क्यों, देश भर में क्यों नहीं होना चाहिए? देखा यह जाता है कि दिवस विशेष पर तो विशेष आयोजन होते हैं लेकिन बाद में सबकुछ भुला दिया जाता है। अगर किसानों के जीवन में बदलाव लाना है तो इस तरह के सम्मेलनों की निरंतरता बनाए रखनी चाहिए।
भारत में पिछले कुछ वर्षों में दलहनी फसलों के उत्पादन में जिस तरह कमी आई है और उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं, उसे देखते हुए इस तरह के आयोजन विशेष अहमियत रखते हैं। 
 
इस सम्मेलन में न केवल बुंदेलखंड के किसानों की  घटती आय पर चिंता व्यक्त की गई, बल्कि खेती-किसानी को व्यावसायिक स्वरूप देने पर भी मंथन हुआ। अरहर और अन्य दलहनी फसलों को ब्रांड बनाने पर जोर दिया गया। धान और देसी गेहूं की कई किस्मों के प्रोत्साहन और औषधीय पौधों के संरक्षण पर चर्चा हुई।  सम्मेलन इसलिए भी अहम है कि इसमें कृषि क्षेत्र के पांच पद्मश्री भी मौजूद रहे। सबने इस पर गहन विचार किया कि दलहनी फसलों के क्षेत्र में बुंदेलखंड अपना खोया गौरव कैसे वापस पा सकता है। पद्मश्री बाबूलाल दाहिया ने अरहर और चने की फसल के लिए बुंदेलखंड की माटी को बेहद मुफीद बताया। वह यह कहने से भी नहीं चूके कि इस क्षेत्र में खाद डालने की जरूरत नहीं है। मुजफ्फरपुर की किसान चाची पद्मश्री राजकुमारी देवी ने किसानों को दलहन उत्पाद प्रोडक्ट के रूप में बेचने की सलाह दी। उनकी इस बात में दम है कि दाल सेहत दुरुस्त रखती है। परहेज में डाक्टर तमाम चीजें खाने से रोकते हैं पर दाल को मना नहीं करते। उन्होंने महिला किसानों को स्वयं सहायता समूह बनाने, साइकिल पर भ्रमण करने और अरहर की फसल की ब्रांडिंग करने की सलाह दी। 
 
बाराबंकी से कालिंजर पहुंचे पद्मश्री रामशरण वर्मा और कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली के प्रो. मान सिंह भारती ने भी माना कि अगर व्यावसायिक ढंग से दलहन उगाई जाए तो किसाानों के दिन बहुरते देर नहीं लगेगी।बांदा के जिलाधिकारी हीरालाल मानते हैं कि जिले में 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनकी खुराक में दाल बढ़ाकर सेहत सुधारी जा सकती है। अरहर सम्मेलन के साथ ही नरैनी में स्वयं सहायता समूह की ग्रामीण उद्यमिता परियोजना के तहत दाल प्रसंस्करण इकाई की शुरुआत भी हो गई है।  बांदा जिले में 17,753 हेक्टेयर भूमि में अरहर, 91,110 हेक्टेयर में चना और 24,624 हेक्टेयर में मसूर की खेती की जाती है। जिले में सरसों की खेती भी 2706 हेक्टेयर भूमि में होती है। इस सम्मेलन में का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इसमें चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर, भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ, निदेशालय रेपसीड-मस्टर्ड रिसर्च, भरतपुर (राजस्थान), इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स, हैदराबाद और बांदा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, बांदा की भी समान सहभागिता रही।

सम्मेलन में 40 खेती -किसानी बागवानी और बैंकों के स्टॉल लगाए गए। बुंदेलखंडी व्यंजन का स्टॉल भी लगा। लगभग 65 किसानों और कृषि वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया। एक समय कोदों, सांभा फसलें बुंदेलखंड क्षेत्र में बहुत होती थीं, इन फसलों का उत्पादन बढ़ाए जाने पर जोर दिया गया। 
 
योगी सरकार बुंदेलखंड के विकास को लेकर बेहद गंभीर है। इसके मद्देनजर गत वर्ष बांदा जिले में इनोवेशन ऐंड स्टार्टअप समिट का आयोजन किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि बांदा को साइंस पार्क उपलब्ध हुआ। अब अतर्रा कृषि फार्म को एक्सीलेंट सेंटर बनाया जाना है। इस लिहाज से देखें तो यह सम्मेलन विषेष मायने रखता है। कभी बुंदेलखंड को दलहन का कटोरा कहा जाता था । इस सम्मेलन से इस क्षेत्र में उसका खोया गौरव और प्रतिष्ठा लौटेगी, इसकी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

भारत की बड़ी जनसंख्या को देखते हुए हर साल उसे विदेशों से दाल आयात करनी पड़ती है। वित्त वर्ष 2017-18 में दलहनों के रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था फिर भी देश को 56.5 लाख टन दलहन का आयात करना पड़ा था। 
भारत में लगभग 220-230 लाख हेक्टयर क्षेत्रफल में दलहन की खेती होती है। इससे हर साल 130-145 लाख टन दलहन की पैदावार होती है। भारत में सर्वाधिक 77 प्रतिशत दाल पैदा होती है। इसमें मध्य प्रदेश का 24 उत्तर प्रदेश का 16, महाराष्ट्र का 14 , राजस्थान का 6,आन्ध्र प्रदेश का 10 और कर्नाटक का 7 प्रतिशत योगदान होता है। जनसंख्या के लिहाज से यह पर्याप्त नहीं है। इसके लिए किसानों को प्रोत्साहित किए जाने की जरूररत है। कालिंजर में हुए इस सम्मेलन की एक खासियत यह भी रही कि इसमें बुंदेलखंड के सातों जिलों समेत कानपुर के मिलर्स और उत्पादक भी शामिल रहे।

इसमें संदेह नहीं कि नीति निर्धारण में ईमानदारी और इच्छा शक्ति हो तो समस्या का स्थायी समाधान निकाल सकता है। खेती के नजरिए से उपेक्षित बुंदेलखंड पूरे उत्तर प्रदेश का दाल से पेट भर सकता है। 
कृषि के विकास व किसानों की भलाई को लेकर बातें बहुत हुईं पर योजनाएं बनाने और अमल में कहीं न कहीं चूक रहीं अन्यथा खाद्यान्न में देश को आत्मनिर्भर बना देने वाले किसान दलहन संकट भी नहीं होने देते। समय से खाद, पानी व उन्नत बीज का प्रबंध होने के साथ उचित मूल्य की व्यवस्था पुख्ता होनी चाहिए।
भारत में किसानों का दलहन उत्पादन के प्रति मोह जिस तरह कम हो रहा है, वह खतरे की घंटी है। इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
 
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
Dakhal News 12 February 2020

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