डॉ. अजय खेमरिया
ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ने `संविधान' शब्द को हिंदी वर्ड ऑफ दी ईयर 2019 घोषित किया है। भारत में बीते वर्ष यह शब्द संसद, सुप्रीम कोर्ट और सड़क पर सर्वाधिक प्रचलित और प्रतिध्वनित हुआ। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश हर साल इस तरह के भाषीय शब्दों को उस वर्ष का शब्द घोषित करता है। भारतीय संदर्भ में इस शब्द की उपयोगिता महज डिक्शनरी तक सीमित नहीं है। असल में संविधान आज भारत की संसदीय राजनीति और चुनावी गणित का सबसे सरल शब्द भी बन गया है। हजारों लोग संविधान की किताब लेकर सड़कों, विश्वविद्यालयों और दूसरे संस्थानों में आंदोलन करते नजर आ रहे हैं। दिल्ली के शाहीन बाग धरने में संविधान की किताबें सैंकड़ों हाथों में दिखाई दे रही हैं। संविधान जैसा विशुद्ध तकनीकी और मानक शब्द भारत में प्रायः हर सरकार विरोधी व्यक्ति की जुबान पर है। उधर सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या, तीन तलाक और 370 जैसे मामलों की सुनवाई भी संविधान के आलोक में की इसलिए वहां भी बीते साल यह शब्द तुलनात्मक रूप से अधिक प्रचलन में आया। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ने इसी बहु उपयोगिता के आधार पर `संविधान' को 2019 का वार्षिक हिंदी शब्द घोषित किया है।
सवाल यह कि क्या देश के लोकजीवन में संविधान और उसके प्रावधान (जिन्हें मानक शब्दावली में अनुच्छेद, भाग, अनुसूची कहा जाता है) आम प्रचलन में है? 130 करोड़ भारतीय जिस संविधान के अधीन हैं, क्या वे संवैधानिक उपबन्धों से परिचित हैं? हकीकत यह है जिस संविधान शब्द की गूंज संचार माध्यमों में सुनाई दे रही है वह चुनावी राजनीति का शोर है।
हमें समझने की आवश्यकता है कि हाथों में संविधान की किताब उठाये भीड़ और उसके नेतृत्वकर्ता असल में संविधान के आधारभूत ढांचे से कितने परिचित हैं? संविधान की पवित्रता की दुहाई देने वाले आंदोलनकारियों ने इसकी मूल भावना को समझा है या वे इतना ही समझते हैं जितना सेक्यूलर ब्रिगेड ने अपने चुनावी गणित के लिहाज से वोटरों में तब्दील हो चुके नागरिकों को बताया है। सच यही है कि आज भारत के लगभग 95 फीसदी लोग अपने संविधान की बुनियादी बातों से परिचित नहीं हैं। क्या एक परिपक्व गणतंत्रीय व्यवस्था में उसके नागरिकों से संवैधानिक समझ की अपेक्षा नहीं की जाना चाहिये? जिस देश का संविधान लिखित रूप में दुनिया का सबसे विशाल और विस्तृत है, उसके 95 फीसदी शासित उसकी मूलभूत विशेषताओं और प्रावधानों से नावाकिफ रहते हुए आखिर कैसे संविधान की रक्षा की दुहाई दे सकते हैं? हकीकत यही है कि हम भारत के लोग इतना ही संविधान की समझ रखते हैं कि कुछ जन्मजात अधिकार संविधान से मिले हैं। जो घूमने, बोलने, खाने, इबादत, व्यापार करने, सरकार के विरुद्ध खड़े होने, सरकारी योजनाओं में हकदारी का दावा करने की आजादी देता है। संविधान की इस एकपक्षीय समझ ने भारत में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक आत्मकेंद्रित फौज खड़ा करने का काम किया है। इसी फौज के बीसियों संस्करण आपको देशभर में अलग-अलग रूपों में मिल जायेंगे। जिनका एक ही एजेंडा है, सरकारी खजाने का दोहन और संवैधानिक कर्त्तव्य के नाम पर उसकी तरफ से पीठ करके खड़ा हो जाना।
वस्तुतः भारत संवैधानिक रूप से एक ऐसे नागरिक समाज की रचना पर खड़ा किया गया है, जहां नागरिक जिम्मेदारी के तत्व को कभी प्राथमिकता पर रखा नहीं गया। 1950 में संविधान लागू हुआ और 1976 में 42 वें संशोधन से 10 कर्तव्य जोड़े गए। यानी 26 साल तक इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि लोकतंत्र जैसी सभ्य शासन प्रणाली कैसे बगैर जवाबदेही के चलाई जा सकती है? आज भी संविधान की इस अनुगूंज में केवल अधिकारों के बोल हैं। एकपक्षीय प्रलाप जिसके पार्श्व बोल उन नेताओं और बुद्धिजीवियों ने निर्मित किये हैं जो भारत में हिंदुत्व और तालिबानी बर्बरता को एक सा निरूपित करते हैं, एक विकृत सेक्युलर अवधारणा को 65 साल तक भारत के भाल पर जबरिया चिपका रखा है। क्योंकि पेट्रो और वेटिकन डॉलर से इनकी बौद्धिकता का सूर्य सुदीप्त रहता है। यही वर्ग भारत में स्वाभाविक शासकों के थिंक टैंक रहे हैं। यानी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी तक पहुँचा भारत का संविधान शब्द किसी जनोपयोगी, लोक प्रचलन या सामाजिकी में स्थापना के धरातल पर नहीं खड़ा है बल्कि यह एक बदरंगी तस्वीर है भारत के सियासी चरित्र की।
संविधान की आड़ में भारत को चुनावी राजनीति का ऐसा टापू समझने और बनाने की जहां सत्ता खोने या हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिये लोग तैयार हैं। झूठ, अफवाह और मिथ्या प्रचार भारतीय जीवन का स्थाई चरित्र बनता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सब कुछ संविधान की किताब हाथ में लेकर किया जाता है। एक जिम्मेदार मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि "जो सीएए में लिखा है आप उसे मत देखिये, मत पढ़िए, जो इसमें नहीं लिखा है उसे पढ़िए, जो मैं बता रहा हूं उसे मानिये।" इसका मतलब यही कि जिस विहित संवैधानिक प्रक्रिया को अपनाकर भारत की संसद ने कानून बनाया उसे जनता मूल रूप से नहीं, नेताओं के बताए भाष्य ओर व्याख्यान के अनुरूप माने। यही भारतीय संविधान की बड़ी विडम्बना है। इसी का फायदा एक बड़ा वर्ग हिंदुस्तानी नागरिक बनकर उठाता आ रहा है। इसी बड़े मुफ्तखोर और गैर जवाबदेह नागरिक समाज की भीड़ के शोरशराबे में आपको संविधान शब्द सुनाई देता है। हमारी चुनावी राजनीति ने लोगों को कभी नागरिक बनने का अवसर नहीं दिया। अपने फायदे के लिए वोटर समाज की रचना में जिस पराक्रम और निष्ठा के साथ सियासी लोगों ने काम किया, अगर इसी अनुपात में वे संवैधानिक साक्षरता के लिये काम करते तो भारत की तस्वीर अलग होती।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)