प्रमोद भार्गव
केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पालन में स्वायत्त न्यास के गठन की जिम्मेदारी पूरी कर ली है। 15 सदस्यीय न्यास का नाम ‘श्री रामजन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र‘ होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में इस न्यास की घोषणा करते हुए कहा कि न्यास में एक सदस्य दलित समाज से होगा। यहां ध्यान देने योग्य बात है कि राम को ‘भगवान-राम‘ बनाने में मुख्य भूमिका उस समाज की रही थी, जो कमजोर होने के साथ अलग-थलग पड़ा था। यह समाज उस वर्ग से आता था, जो जंगलों में निवास करता था। इसी वनवासी समाज ने राम के नेतृत्व में लंका-नरेश रावण पर विजय प्राप्त की और राम ने इस विजय के बाद एक ऐसे समरसतावादी समाज की परिकल्पना की जो फलीभूत होती हुई ‘रामराज्य‘ कहलाई। गांधी भी भारत की स्वतंत्रता के बाद इसी तरह के रामराज्य की कल्पना करते थे लेकिन वह चरितार्थ नहीं हुई। गोया, दलित को न्यास का सदस्य बनाकर इस सरकार ने जहां छुआछूत पर कुठाराघात किया है, वहीं अयोध्या में जातीय समरसता कायम रहे, इसकी भी नींव राममंदिर के निर्माण से पहले रख दी है।
न्यायालय के फैसले के तीन माह के भीतर न्यास का गठन न्यायालय के निर्देश की समय-सीमा का पालन है। हालांकि मोदी के निंदक इसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में चुनावी लाभ का गणित मानकर चल रहे हैं। जबकि यह कार्यवाही अदालत के साथ-साथ देश की राष्ट्रीय आकांक्षा की पूर्ति है। बहुसंख्यक हिंदू समाज ही नहीं, भारतीय इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने वाले मुसलमान भी विवादित स्थल को राममंदिर ही मानते हैं। इस कड़ी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक के.के. मोहम्मद पुरातत्वीय साक्ष्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि विवादित स्थल पर भव्य मंदिर था। यही नहीं उच्च न्यायालय, इलाहाबाद और शीर्ष न्यायालय की राममंदिर विवाद से जुड़ी पीठों के सदस्य रहे मुस्लिम न्यायमूर्तियों ने भी विवादित स्थल को मंदिर माना है। केवल वामपंथी इतिहास व साहित्यकार ही इस सच्चाई को हमेशा झुठलाते रहे हैं।
अब विवाद-मुक्त हुई भूमि समेत 67.703 एकड़ भूमि भी इस न्यास को सौंप दी जाएगी। याद रहे 1992 में जब विवादित ढांचे को गुस्साए कारसेवकों ने ढहा दिया और विवाद गहराया तो 1993 में अयोध्या में विवादित स्थल सहित इससे जुड़ी करीब 67 एकड़ भूमि का उस समय की पीवी नरसिंह राव सरकार ने अधिग्रहण कर लिया था। तभी से यह भूमि केंद्र सरकार के पास है। चूंकि अब न्यास अस्तित्व में आ गया है, इसलिए भव्य राममंदिर निर्माण के लिए इस भूमि को न्यास को दिया जाना जरूरी था। गौरतलब है कि 9 नवंबर 2019 को जब मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में विवादित भूमि पर सर्वसम्मति से रामलला का अधिकार माना था। नतीजतन यह भूमि राममंदिर के लिए दे दी गई। न्यायालय ने सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को भी अयोध्या जिले में मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ भूमि देने का फैसला दिया था। इस निर्णय का पालन करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पांच एकड़ भूमि बोर्ड को आवंटित कर दी है। इन कार्यवाहियों से जल्द मंदिर निर्माण का रास्ता खुलने के साथ यह संदेश भी भारतीय जन-मानस में पहुंचा है कि इस भूखंड पर रहने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी सभी एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं। गोया, हमारी संस्कृति एवं परंपराएं ऐसी विलक्षण है, जो दुनिया को ‘वसुधैव कुटुंबकम और सर्व भवतु सुखिनः‘ का संदेश देती है।
सरकार ने स्वायत्त न्यास का गठन इसलिए किया है, जिससे न्यास सरकारी हस्तक्षेप से दूर रहे और कामकाज में न्यासियों को संपूर्ण स्वतंत्रता मिले। न्यास को मंदिर निर्माण और उसके संचालन के साथ-साथ आर्थिक लेन-देन की स्वायत्तता भी दी गई है। लेकिन न्यास को कोई भी अचल सम्पत्ति किसी भी स्थिति में बेचने का अधिकार नहीं होगा। न्यास के विधान में यह व्यवस्था भी की गई है कि पदेन व सरकार द्वारा मनोनीत के अलावा जो दस सदस्य रहेंगे, उनमें से किसी सदस्य की मौत होने या त्यागपत्र देने अथवा किसी करणवश हटाए जाने पर, उनके स्थान पर नए सदस्य के चयन का अधिकार न्यासियों को होगा, किंतु नए सदस्य का हिंदू धर्मालंबी होना अनिवार्य है। दलित सदस्य का स्थान खाली होने की स्थिति में दलित को ही चयनित करना जरूरी होगा। पदेन सदस्यों में जिला कलेक्टर भी एक सदस्य हैं। इसमें प्रावधान रखा गया है कि अयोध्या में यदि किसी मुस्लिम कलेक्टर को पदस्थ किया जाता है तो उस स्थिति में जिले के एडीएम पदेन सदस्य होंगे। इन न्यासियों को वेतन व भत्ते नहीं दिए जाएंगे। अब यह उम्मीद जताई जा रही है कि राममंदिर का शिलान्याय 25 मार्च से शुरू हो रहे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर 2 अप्रैल को राम जन्मदिन या इस बीच संभव है।
इक्ष्वाकु वंश के इस नायक राम की लंका पर विजय ही इस बात का पर्याय है कि सामूहिक जातीय चेतना से प्रगट राष्ट्रीय भावना ने इस महापुरुष का दैवीय मूल्यांकन किया और भगवान विष्णु के अवतार का अंश मान लिया। क्योंकि अवतारवाद जनता-जर्नादन को निर्भय रहने का विश्वास, सुखी व संपन्न होने के अवसर और दुष्ट लोगों से सुरक्षित रहने का भरोसा देता है। अवतारवाद के मूल में यही मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति काम करती है। लेकिन राम वाल्मीकि के रहे हों, चाहे गोस्वामी तुलसीदास के अलौकिक शक्तियों से संपन्न होते हुए भी वे मनुष्य हैं और उनमें मानवोचित गुण व दोष हैं। इसीलिए वे भारतीय जनमानस के सबसे ज्यादा निकट हैं। इसका एक कारण यह भी है कि राम ने उत्तर से दक्षिण की यात्रा करके देश को सांस्कृतिक एकता में पिरोने का सबसे बड़ा काम किया था। इसी काम को कृष्ण ने अपने युग में पूरब से पश्चिम की यात्रा करके देश को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया था। राम और कृष्ण की शताब्दियों पहले की गई सामाजिक सद्भाव की ये ऐसी अनूठी यात्रा रही हैं, जो सामाजिक संरचना को आज भी मजबूती देने का काम करती है।
दरअसल, राजनीति के दो प्रमुख पक्ष हैं, एक शासन धर्म का पालन और दूसरा युद्ध धर्म का पालन। रामचरितमानस की यह विलक्षणता है कि उसमें राजनीतिक सिद्धांतों और लोक-व्यवहार की भी चिंता की गई है। इसी परिप्रेक्ष्य में रामकथा व राम का चरित्र संघर्ष और आस्था का प्रतीक रूप ग्रहण कर लोक कल्याण का रास्ता प्रशस्त करते हैं। महाभारत में भी कहा गया है कि ’राजा रंजयति प्रजा’ यानी राजा वही है, जो प्रजा के सुख-दुख व इच्छाओं की चिंता करते हुए उनका क्रियान्वयन करे। इस परिप्रेक्ष्य में प्रजा की नरेंद्र मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि अयोध्या में भव्य एवं दिव्य राममंदिर बने। मोदी इस राष्ट्रीय आकांक्षा पूर्ति के प्रतीक बनकर उभरे हैं। यह ऐसा अनूठा मंदिर हो जो सामाजिक समरसता के रंग में पूरी तरह रंगा हो, क्योंकि इसी भावना में इस रामनगरी का पौराणिक महत्व और ऐतिहासिक-गाथा अंतर्निहित है। साफ है, भारत के लिए राम की प्रासंगिकता, इस राष्ट्र की संप्रभुता, अखंडता व एकता के लिए हमेशा अनिवार्य बनी रहेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)