नीतीश के सवाल और विपक्ष की वैचारिक अकर्मण्यता
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

उमेश त्रिवेदी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश में विपक्ष की राजनीति के मुद्दे, स्पेस और प्रासंगिकता को लेकर जो बुनियादी सवाल उठाए हैं, उस पर विरोधी दलों को गंभीरता से मनन करना चाहिए।  नीतीश ने विपक्षी एकता के कांग्रेस के नारे के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा कि केवल दलीय एकता का कोई अर्थ नहीं है, जब तक कि विरोधी दलों के पास कोई वैकल्पिक एजेंडा न हो। हमें जनता को बताना होगा कि देश को टूटने से हम ही बचा सकते हैं और उसका तरीका और तेवर इस ढंग से होगा। अर्थात हम अगर हिंदुत्व के विरोध में हैं तो हमारे पास प्रति हिंदुत्व का एजेंडा क्या है? मात्र  गठबंधन बना लेने से न कोई बात बननी है, न ही वैकल्पिक चेहरा सामने रखने से जनमानस बदलना है। नीतीश कुमार ने मार्के की यह बात दिल्ली में वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर कही। नीतीश ने कहा कि जब तक जनता के सामने विपक्ष अपना कार्यक्रम और नीतियां स्पष्टता से नहीं रखेगा, तब तक देश के राजनीतिक कैनवास में उसकी स्थिति हाशिए पर ही रहेगी।  

नीतीश देश के उन चंद नेताओं में हैं, जिनकी बात को राजनीतिक क्षेत्र में गंभीरता से लिया जाता है। वे अपनी बात बेबाकी से और पूरी परिपक्वता से कहते हैं। राजनीतिक घटनाओं को पढ़ने में उनका कोई सानी नहीं है। जब विपक्ष प्याले में तूफान उठाने की कोशिश करता है, तब नीतीश सागर किनारे शांत खड़े दिखते हैं।  उनकी यही संजीदगी नोटबंदी  और राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को समर्थन देने के मुद्दे पर दिखी। नीतीश ने कहा कि हम बिहार में  भाजपा को हराने में कामयाब रहे तो इसका कारण हमारा एजेंडा स्पष्ट था। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक एजेंडे की कमान कांग्रेस को थामनी होगी, क्योंकि वही सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। नीतीश की राजनीति और उसकी दिशा को लेकर अक्सर सवाल  उठते रहे हैं। यह आरोप भी है कि वे स्मार्ट पॉलिटिक्स करते हैं। उनकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। लेकिन वे सत्ता के हाइ-वे पर चलना जानते हैं। लेकिन नीतीश ने अभी जो कहा उसका सीधा निशाना कांग्रेस पर है, जो दिल्ली में सत्ता खोने के तीन साल बाद भी राजनीति में अपनी प्रासंगिकता तलाश रही है। उसका अपना कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है। पंजाब और एकाध छोटे राज्य में चुनावी सफलता का कांग्रेस की वैचारिक किंकर्तव्यमूढ़ता से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि वह स्थानीय राजनीतिक परिस्थिति और क्षत्रपों के राजनीतिक आभामंडल का परिणाम थी। इसके विपरीत भाजपा का एजेंडा और मैदानी मोर्चाबंदी बिल्कुल साफ है। वह देश को हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  अमित शाह की जोड़ी विपक्षी हो हल्ले और आलोचना से घबराए बगैर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है और एक के बाद एक किले काबिज करती जा रही है। यही नहीं, आज मोदी और शाह विपक्ष का एजेंडा भी सेट कर रहे हैं। चाहे गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी, असहिष्णुता, दलित उत्पीड़न, उग्र हिंदुत्व, नोटबंदी या जीएसटी हो, वो मुद्दे को इस चतुराई से जनमानस में फ्लोट करते हैं कि उनका तीखा विरोध भी रिबाउंड होकर अतंत: भाजपा के नंबर ही बढ़वाता है। कांग्रेस व अन्य विरोधी पार्टियों के पास  भाजपा के नकारात्मक मुद्दों की कोई काट  न तो है और न ही उसे ढूंढने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति है। इस राजनीतिक अकर्मण्यता को इसी बात से समझा जा सकता है कि जहां एक ओर अमित शाह राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए लगातार  देश भर का दौरा कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस के ‘युवराज’ राहुल गांधी किसान आंदोलन को अधर में छोड़कर एक माह के लिए नानी के घर विदेश चले जाते हैं। जीएसटी जैसे दूरगामी मुद्दे पर महज ट्वीट करते रहते हैं। इस ‘केजुअल पॉलिटिक्स’ से विपक्ष तो छोड़िए खुद कांग्रेस को भी वो क्या दिशा और ऊर्जा देंगे? 

नीतीश के सवाल में इसी विपर्यास की मार्मिक गूंज है। कांग्रेस अगर सेक्युलरवाद, सहिष्णुता और सर्व समावेशी राजनीति की बात करती है तो उसके पास वो दम, दिशा, जुनून और प्रतिबद्धता कहां है, जिसके बूते पर जनता में यह संदेश जा सके कि हां, कांग्रेस ही देश को बचा सकती है, उसे सही दिशा में आगे ले जा सकती है। अगर देश हिंदुत्व से नहीं चलेगा तो फिर कौन से एजेंडे पर चलेगा? वो समय गया जब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, गरीब हितैषी छवि और तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय किस्म की राजनीति के दम पर कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी बनी हुई थी। आज  बीजेपी और आरएसएस  ने पूरी राजनीति को ‘हिंदू फर्स्ट’ में तब्दील कर दिया है और उसका लक्ष्य पूरी पीढ़ी है, जो मोटे तौर हिंदुत्व के रंग में रंग चुकी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए कांग्रेस के पास कोई ठोस प्रति विचार या कार्यक्रम नहीं है कि हिंदुत्व नहीं तो क्या। सेक्युलर शब्द अब इतना बोदा और निराकार हो चुका है कि उसमें कोई मास अपील नहीं बची है। यही हाल उन क्षेत्रीय पार्टियों के हैं, जो किसी बड़ी पार्टी की पूंछ पकड़कर सत्ता की मलाई चाट रही हैं। विचारणीय यह है कि क्या कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां नीतीश के इस सुझावात्मक सवाल का सार्थक उत्तर खोजेंगी या केवल दूसरे की विचारधारा पर संदेह ही जताती रहेंगी।[लेखक उमेश त्रिवेदी सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

 

 

Dakhal News 5 July 2017

Comments

Be First To Comment....

Video
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2024 Dakhal News.