मोदी की तुरूप चाल से विपक्ष का संकट
उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित करके विपक्ष के उन परिन्दों को हतप्रभ कर दिया है, जो विपक्षी एकता के नाम पर उनकी सत्ता के सुनहरे राजनीतिक जाल को लेकर उड़ जाना चाहते थे। विपक्षी-एकता के नाम पर चुनाव के राजनीतिक फलक पर उड़ने को आतुर 17 विपक्षी दलों के इस समूह की ताकत को पहला झटका बसपा की मायावती की ओर लगा है, जो दलित राष्ट्रपति के रूप में उनका समर्थन करने को मजबूर हैं। राजनीतिक-जमीन पर उनके भारी शब्दों की छटपटाहट स्पष्ट महसूस होती है कि यदि वो संघी नहीं होते तो ज्यादा अच्छा होता, लेकिन हमारे समर्थन के लिए उनका दलित होना पर्याप्त है। हार्ड-कोर संघी चेहरे को दलितों के कैनवास में पेश करके नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष के सामने सैद्धांतिक-संकट खड़ा कर दिया है कि वो दलित-विरोध के राजनीतिक गुनाहगार बनें या रामनाथ कोविंद की राहों से हट जाएं। वैसे भी विपक्ष राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद के राज-पथ पर ट्राफिक-जाम करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन मोदी चाहते हैं कि दलित राजनीति की इस तुरूप-चाल के आगे विपक्ष विधिवत आत्म-समर्पण करें। 

राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में कोविंद की यह पेशकश प्रधानमंत्री मोदी का मास्टर-स्ट्रोक है, जिसमें विपक्ष की उस हर राजनीति का जवाब है, जिसकों लेकर मोदी-सरकार हमेशा कठघरे में खड़ी होती रही है। गरीबों और दलितों के सवाल हमेशा भाजपा को सालते रहे हैं। सवर्ण हिन्दू पार्टी की पहचान अलावा गरीब-विरोधी छवि का राजनीतिक-बोझ सत्ता की राहों में भाजपा के सफर को हमेशा बोझिल बनाता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार इस राजनीतिक बोझ से निजात पाने के कुछ स्थायी उपाय किए हैं। सबसे पहले नोटों के विमुद्रीकरण को अमीर काला-बाजारियों के खिलाफ मुद्दा बनाकर उन्होंने गरीबों में सफलतापूर्वक यह विश्वास पैदा किया कि वो गरीबों के पक्षधर प्रधानमंत्री हैं। अब राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद का नाम देश की दलित-राजनीति में खलबली पैदा कर रहा है। 

कोविंद का चयन भाजपा के राजनीतिक-डीएनए को बदलने वाला ऐतिहासिक उपक्रम है, जो उसकी पहचान को नई राजनीतिक-चमक देने वाला है। विमुद्रीकरण के बहाने गरीबों में भाजपा की धमक जमाने के बाद मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष का वह दलित-एजेण्डा था, जो उनकी सरकार के लिए परेशानियों का सबब रहा है। दलित-आंदोलन के सवालों के आगे असहाय मोदी-सरकार ने बाबा साहब अंबेडकर के बहाने समाधान ढूंढने के जो प्रयास किए थे, वो किताबी ज्यादा,जमीनी कम थे। इधर, मोदी अंबेडकर का जाप करते थे, उधर हैदराबाद सेण्ट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की फांसी राजनीतिक आरोंपो का फंदा बनकर सामने खड़ी हो जाती थी। 

अपने तीन साल का कार्यकाल में मोदी-सरकार ने सबसे ज्यादा दलित सवालों से जुड़े आंदोलनों का सामना किया है। जनवरी 2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद गुजरात में जिग्नेश मेवानी दलित आंदोलन का चेहरा बनकर उभरे थे। गुजरात में गौ-रक्षकों व्दारा दलितों की कोड़ों से पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन ने पूरे देश के माहौल में गरमाहट पैदा कर दी थी। हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पिछड़ा-वर्ग के आंदोलन ने इसमें घी का काम किय़ा था। उत्तर प्रदेश में योगी-सरकार के गठन के बाद हाल ही में सहारनपुर में भभकी दलित आंदोलन की आग ने सारे देश को तपा सा दिया है। इस आंदोलन से उपजी भीम-आर्मी की सवर्ण ठाकुरों के अत्याचारों के विरूद्ध सामाजिक विद्रोह के राजनीतिक मायने गहरा अर्थ रखते हैं। इस दलित-सवर्ण संघर्ष में दलित नेता के रूप में चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण का अभ्युदय नई राजनीति का ऩया अध्याय प्रतीत होता है। 

प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी इस तथ्य को बखूबी आंक रहे है कि पिछले सभी दलित आंदोलन की कोख से राजनीति का नया चेहरा सामने आ रहा है। जिसका राजनीतिक-समाधान जरूरी है। नए दलित नेताओं की उपज देश में परम्परागत दलित राजनीति को खारिज कर रही है। भाजपा राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद के दलित चेहरे को सामने रख कर इसका जवाब तैयार करना चाहती है। गरीब और दलितों के मसीहा के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहचान को पुख्ता करने के लिए भाजपा ने यह कदम बढ़ाया है। 72 साल के  रामनाथ कोविंद की प्रस्तुति को परम्परागत राजनीति की बासी कढ़ी में नया उबाल इसलिए नहीं कहा जाएगा कि भाजपा में पुराने होने के बावजूद नए जैसे हैं। मोदी-मेजिक के पिटारे से कलंदरी अंदाज में कोविंद लोगों के सामने निकले हैं। सक्रिय राजनीति के राडार पर उनकी हस्ती हमेशा गुमशुदा रही है। अभी लोग उनके बारे में उतना ही जानते है, जितना विकीपीडिया में लिखा है। मोदी की थीसिस के अनुसार यह नामजदगी भाजपा के 'टोटल-ट्रांसफार्मेशन' के 'केमिकल प्रोसेस' का अंतिम पर्याय हैं, जिसके जरिए नरेन्द्र मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीतिक-संरचना करेंगे। देश में दलित-मतदाताओं की संख्य़ा 16 प्रतिशत है। जाहिर है मोदी के दिलो-दिमाग पर इस वक्त 2019 हावी है। भाजपा के राजनीतिक-रूपांतरण की इस पहल के जवाब में विपक्ष लगभग लाजवाब है। [लेखक उमेश त्रिवेदी भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

 

Dakhal News 21 June 2017

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