क्या मीडिया डरकर मरेगा?
एनडीटीवी फाउण्डर प्रणय रॉय

एनडीटीवी के को-फाउण्डर प्रणय रॉय के यहां सीबीआई के छापे के बाद भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी का ट्वीटर पर हर्षातिरेक में किलक उठना गौरतलब है कि 'कानून का डर हर किसी के अंदर होना चाहिए, फिर वो चाहे कितनी बड़ी शख्सियत क्यों न हो?' स्वामी का ट्वीटर सरकारी भयादोहन की उन काली परछाइयों की ओर इशारा करता है, जो कूट-संरचनाओं की काली दीवारों पर राजनीतिक हिकमत के साथ मंडरा रही हैं। केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू ने इस छापे के बाद कहा है कि कानून अपना काम कर रहा है। वैसे जब कानून अपना काम करता है, तो  लोगों को डर नहीं लगता है। डर उस वक्त पैदा होता है, जब कानून 'अपना' काम करने के बजाय 'सरकार' का काम करने लगता है। 

स्वामी का ट्वीट सीधे सवालों को आमंत्रित करता है कि क्या सही अर्थो में कानून का डर सब लोगों को समान रूप से आशंकित, आतंकित और आरोपित कर रहा है? स्वामी के ट्वीटर से उपजे डर के परिदृश्यै पर अदृश्या भयादोहन की इन परछाइयों के पीछे छिपी राजनीतिक हिकमतों को समझना और सुलझाना मुश्किल नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू ने यह कहकर घटना को वैधानिक-तिलिस्म की चादर से ढंकने की कोशिश की है कि कानून अपना काम कर रहा है। लेकिन नायडू का यह कानूनी-दांव पिलपिला है, क्योंकि प्रणय रॉय पर कार्रवाई के बाद 7.33 लाख करोड़ के लोन पर ऐश कर रहे देश के दस बड़े उद्योगपतियों के एनपीए अकाउंट्स, विराट प्रश्न-चिन्ह बनकर खड़े हो जाते हैं कि इन लोगों में कानून का भय कैसे अंकुरित होगा?  स्वामी क्या यह बता पाएंगे कि प्रणय रॉय के मन में डर पैदा करने को ये कोशिशें 1.14 लाख करोड़ के कर्जदार अनिल अंबानी को कैसे अपनी गिरफ्त में लेंगी? हाल ही में रिलायंस कम्युनिकेशन के नाम पर दस बैंको के कर्जदार अनिल अंबानी के लिए 25 हजार करोड़ की ऋण चुकाने की अवधि दिसम्बर 2017 तक क्यों बढ़ा दी गई है?  अनचीन्हे और अपर्याप्त आरोपों से घिरे प्रणय रॉय को डराने से पहले क्या केन्द्र सरकार को गौतम अडानी, रुईया ब्रदर्स, जिंदल, जयप्रकाश गौड़ या राजकुमार धूत जैसे अरबों के कर्जदारों को डराने की जरूरत नहीं हैं? प्रणय रॉय के मुताबिक ऋण की यह रकम भी वे सात-आठ साल पहले अदा कर चुके है।      

 एनडीटीवी घोषित रूप से मोदी-सरकार की रीति-नीति पर तीखे सवाल उठाता रहा है। यह बात आसानी से गले उतरने वाली नहीं है कि कोई भी, भले ही वह एनडीटीवी क्यों नहीं हो, दल-दल में खड़े होकर सरकार पर कीचड़ उछालने का दुस्साहस करेगा...? एनडीटीवी पर सीबीआई के छापे की प्रतिध्वनि में कानून की कम, सरकार की टंकार ज्यादा सुनाई दे रही है। एनडीटीवी से सरकार की नाराजी पुरानी है। उस पर शिकंजा कसने की कोशिशें भी नई नहीं हैं। नवम्बर 2016 के पहले सप्ताह में भी मोदी-सरकार ने एनडीटीवी के प्रसारण पर एक दिन की रोक लगाने की कोशिश की थी। मीडिया की आजादी के सवालों में उलझने के कारण आदेश को वापस लिया गया था। इस मर्तबा सरकार ने आपराधिक मामले को आगे रखा है ताकि कार्रवाई को मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से नहीं जोड़ा जा सके। लेकिन एनडीटीवी व्दारा प्रस्तुत तथ्यों के बाद कार्रवाई में बदनीयती सिर उठाती महसूस हो रही है। 

एनडीटीवी के बहाने मीडिया में डर पैदा करने की कोशिशें आपातकाल की चालीसवीं सालगिरह पर प्रकाशित लालकृष्ण आडवाणी की उन आंशकाओं को गहरा कर रही हैं कि आपातकाल की प्रवृत्तियों से सावधान रहना जरूरी है। मोदी-सरकार सवालों से परहेज करती है, जो मीडिया सवाल करेगा, वह परेशान होगा। दशकों तक मीडिया-फ्रेण्डली रही भाजपा का यह कठोर राजनीतिक चेहरा मीडिया के लिए अजनबी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नकेल डालने के साथ ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने प्रिंट मीडिया पर फंदा कसने का क्रम शुरू कर दिया है। मध्यम और छोटे अखबारों का अस्तित्व सवालिया होता जा रहा है। अभिव्यक्ति के आजाद परिन्दों को कार्पोरेट-मीडिया के पिंजरों में बंद करने की साजिशें परवान चढ़ने लगी हैं। 

2003 में फिल्म डायरेक्टर रामगोपाल वर्मा ने फिल्म बनाई थी- 'डरना मना है' ... 2006 में उन्होंने इसके सिक्वल का नाम रखा था- 'डरना जरूरी है'... रामगोपाल सुब्रमण्यम स्वामी जैसे ही विवादास्पद व्यक्ति हैं, जो कानून की लाठी से सबको डराना चाहते हैं। स्वामी ने प्रणय रॉय के मसले में कहा है कि सबका 'डरना जरूरी है।'  इसका जवाब 1975 में प्रदर्शित शोले फिल्म में गब्बर का यह डॉयलॉग है कि 'जो डर गया, वह मर गया' … मीडिया का तो मूल-मंत्र ही यही है कि वह डरे नहीं, क्योंकि 'जो डर गया, वह मर गया' ...।

- उमेश त्रिवेदी

- लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।

Dakhal News 9 June 2017

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