पशु-वध के साथ राजनीतिक-पशुता का नियमन भी जरूरी...
पशु-वध

उमेश त्रिवेदी

पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में घटित कतिपय वीभत्स घटनाओं के बाद क्या यह मुनासिब नहीं है कि देश के सभी राजनीतिक दल मिलकर अपने लिए एक ऐसी राजनीतिक आचार-संहिता तैयार करें, जो राजनीति में बदगुमानी और वहशीपन पैदा करने वाली राजनीतिक घटनाओं और गतिविधियों पर लगाम लगा सके। विडम्बना यह है कि इऩके सामने जनता विचलित और असहाय है, लेकिन राजनीतिक दल और राजनेता सारे संदर्भों का खून निचोड़ कर उत्पाती, उन्मादी और उच्छृंिखल धारणाओं की ऐसी हिंसक फसल बो रहे हैं, जो अनहोनी और आपदाओं को आमंत्रित करती है। केरल की सड़कों पर बीफ-फेस्ट और उत्तर भारत की राहों पर गौ-संरक्षण के नाम पर हत्याओं के दृश्य इसका जीवंत उदाहरण है।  

सरकार और राजनीतिक दलों को यह हक तो हासिल हो सकता है कि वो लोगों की आर्थिक, सामाजिक, सामुदायिक और सामूहिक जिंदगी को नियोजित करने के लिए वैधानिक उपाय करें, उनके प्रबंधन के लिए नियम बनाएं, अनुशासन कायम करें, लेकिन इन संस्थाओं को यह हक कतई हासिल नहीं है कि वो लोगों के सामने मानसिक-प्रताड़नाओं का ऐसा अमूर्त पहाड़ खड़ा कर दें कि वो बेचैन होने लगें, ऐसे सवालों का अंबार पैदा कर दें, जिनके उत्तरों को लेकर खुद उनमें मतैक्यता नहीं हो। कश्मीर में पत्थरबाजों से बचने के लिए कश्मीरी युवक को जीप के सामने बांध कर अपने साथियों को जीवन-दान देने वाले सेना के मेजर नितिन गोगोई राष्ट्र की सलामी के हकदार क्यों नहीं होना चाहिए? क्या सोशल मीडिया के कल्पना-लोक में तलवार भांजने वाले इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि सेना के सिपाहियों को भी उतने ही मानव-अधिकार हासिल हैं, जितने कि उन पर पत्थर फेंकने वालों को हैं? कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए पाकिस्तान से मदद लेने वाले हुर्रियत नेताओं का सफाया करने के मामले में सभी राजनीतिक दलों की आवाज एक क्यों नहीं होना चाहिए?   तीन तलाक जैसे मानवीय सवाल पर भाजपा और कांग्रेस का रुख एक जैसा क्यों नहीं होना चाहिए? 

क्या देश की मोदी-सरकार और अन्य राजनीतिक दल इतने नासमझ हैं कि वो यह नहीं समझ सके कि हैं कि देश में गाय के नाम पर चलने वाली राजनीति निरापद और निस्पृह नहीं है?  भारतीय समाज में गाय को सबसे ज्यादा निरापद पशु माना जाता है। वह समाज में सीधेपन का प्रतीक है, लेकिन गाय पर होने वाली राजनीति उतनी ही ज्यादा क्रूर, कठोर और अमानवीय है। गौ-संरक्षण के नाम पर उत्तर भारत में होने वाली क्रूर राजनीति का चेहरा जितना शर्मनाक है, उतना ही वीभत्स कन्नूर (केरल) में राजनीतिक रूप से प्रायोजित कांग्रेस का वह बीफ-फेस्ट है, जो मवेशी बाजार में पशुओं की खरीद-फरोख्त को नियमित कर, क्रूरता रोकने वाले केन्द्रीय कानून के खिलाफ था। गाय के नाम पर सक्रिय इस राजनीतिक-बिरादरी में कन्नूर का यह बीफ-फेस्ट राजनीति में मौजूद पशुता का वह चेहरा है, जो समाज में रक्तपात का संवाहक है। इसकी आड़ में राजनीति कभी पशुओं को मारती हैं, तो इंसानों की जान लेती है। क्या कांग्रेस, भाजपा या अन्य दल अपनी राजनीति को उन सवालों से दूर नहीं रख सकते, जिसके समाधानों का भूगोल एक नही हैं और इतिहास अलग-अलग है। उत्तर भारत में मोदी-सरकार गौ-संरक्षण के नाम पर वोटों की फसल उगाती है, वहीं मेघालय जैसे पूर्वोत्तर राज्यों और दक्षिण में बीफ भाजपा के गले में हड्डी जैसा अटका है। वहां उसके नेताओं के कथोपकथन और रणनीति उत्तर भारत से विरोधाभासी है। नफरत को प्रायोजित करके वोट कमाने के ये तरीके नाजायज हैं। 

देश इस वक्त राजनीतिक- संतुलन के ऐसे मानसिक-दौर से गुजर रहा है, जहां सही-गलत, अच्छे-बुरे, राष्ट्रीय-अराष्ट्रीय, सामाजिक-असामाजिक सवालों के फेब्रिक या ताने-बाने में काले-भूरे का फर्क करना भी मुश्किल होता जा रहा है। राष्ट्रहित से जुड़े मसलों को देखने के लिए पूरे देश के चश्मे का रंग एक होना चाहिए। रक्षा मंत्री अरुण जेटली के इस मत पर कोई असहमत नहीं है कि आतंकवाद और बार्डर के मसलों में सेना की कार्रवाई सवालों से परे होना चाहिए। लेकिन इन संदर्भों में सर्जिकल-स्ट्राइक जैसी कार्रवाई को राजनीति का हिस्सा बनाने से रोकना भी उतना ही जरूरी है। भाजपा राजनीतिक-श्रेय बटोरने की अफरा-तफरी में ऐसा करने में असमर्थ रही है। बंगला देश और पाकिस्तान जैसे युध्दों में विजयी सेना के इतिहास को राजनीतिक-प्रदूषण से बचाने का दायित्व भी सरकार के कंधों पर है। सेना के साथ ही उसे देश के पूरे राजनीतिक पर्यावरण को दुरुस्त रखने की महती जिम्मेदारी का निर्वहन भी करना होगा। लेकिन इन मामलों में सिर्फ भाजपा के ही नहीं, कांग्रेस सहित सभी राजनेताओं के पांव राजनीतिक-अतिरेक के कीचड़ में सने हैं। [लेखक उमेश त्रिवेदी भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के प्रधान संपादक हैं ]

Dakhal News 3 June 2017

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