1986 की शाहबानो की तरह 2016 की शायराबानो नहीं हारेगी...
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उमेश त्रिवेदी 

सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के मसले पर बजरिए हलफनामा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो आत्म-समपर्ण किया है, उसके निहितार्थ सिर्फ तीन तलाक के मुकदमे तक सीमित नहीं रहेंगे। यह एक सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत है, जो मुस्लिम समाज में तब्दीली के साथ देश की राजनीतिक-आबोहवा में एक नई महक पैदा करेगी। इसके राजनीतिक आयामों की मीमांसा भी नई रोशनी की ओर इशारा करती है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना बाकी है, लेकिन अदालत में सवाल-जवाबों के मंथन में निकले विषमताओं के विष से दूषित होते  महिला-अधिकारों के अमृत की हिफाजत सबकी चिंता का सबब थी। अमृत और विष का खेल पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए अलर्ट था कि विष को छांटने का उपक्रम सुप्रीम कोर्ट के संभावित प्रकोप को कम कर सकता है। कोर्ट का रुख भांपने के बाद पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह रणनीतिक-पहल की है। लेकिन यह महज कोर्ट के रुख से जुड़ा सवाल नहीं है। मोदी-सरकार की कट्टरपंथी मूरत के राजनीतिक पूजा-विधान में तुष्टिकरण के मंत्रोच्चार के सूत्र और श्लोक हटा दिए गए हैं। तुष्टिकरण के भाजपाई पूजा-विधान पर जनता की मुहर भी लग चुकी है। कोर्ट के सामने यह सरेण्डर बोर्ड की इस समझ का सबब है कि इस्लाम के नाम पर वोटों की राजनीति का दौर अब समाप्ति की ओर है। 

मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ भाजपा का बोल्ड चुनाव-विधान देश में ऩई राजनीति का आव्हान करता प्रतीत होता है। उप्र चुनाव के बाद मुस्लिम राजनीति को लेकर विपक्षी दल सांप-छछूंदर जैसे असमंजसों से घिरे हैं। मुस्लिम मसलों में उनकी उग्रता कम होती जा रही है। इसका एक जायज संदेश यह भी है कि वोटों की परवाह किए बिना समाज-हित से जुड़े मामलों में सरकारें यदि सकारात्मक स्टैण्ड लेंगी, तो जनमत पूरा समर्थन करेगा। देश वोटों की राजनीति के नाम पर होने वाले धत्कर्मों से ऊब चुका है। मसले सिर्फ तीन तलाक तक ही सीमित नहीं हैं। पिछड़ों के आरक्षण में क्रीमी लेयर के सवाल भी भभक रहे हैं, जिनके कारण हरियाणा या गुजरात में आंदोलनकारियों ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। नदियों के पानी का बंटवारा, किसानों की मौत, गौ-रक्षा के नाम पर होने वाले फसाद, सांप्रदायिक झगड़े, जातीय-विवाद जैसे मुद्दों की लंबी श्रृंखला है, जिन्हें राजनीति से अलग ट्रीट करने की जरूरत है। भाजपा को इन मुद्दों को भी एड्रेस करना होगा। 

एक तबका मानता है कि तीन तलाक के मामले में मोदी सरकार इसलिए सख्त है कि हिन्दू-ध्रुवीकरण की रासायनिक क्रिया में यह केटेलिसिस का काम कर रहा है। इस मामले में भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू हैं। लेकिन ऐसे लड्डुओं का मोह भाजपा को छोड़ना होगा।          

मुस्लिम समाज में महिलाओं के हकों पर कुठाराघात करने वाले तीन तलाक की परम्परा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर होने वाली बहस को सुप्रीम कोर्ट ने लगातार छह दिनों तक सुना है। पांच जजों की संविधान-पीठ के सामने केन्द्र-सरकार, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी महिलाओं की दलीलों से बौध्दिक-समाज उव्देलित है। बोर्ड को समझ में आ गया है कि मुस्लिम महिलाओं के मानवीय सवालों को इस्लाम के नाम पर अब टालना संभव नहीं है। उनके जवाब देना ही होंगे। इसीलिए बोर्ड फैसला सुनाए जाने से पहले एक सुधारवादी हलफनामे के साथ सामने आया है। बोर्ड का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के वर्डिक्ट को प्रभावित करने वाली रणनीतिक पहल से ज्यादा कुछ नहीं है। 

बोर्ड का हलफनामा कहता है कि निकाहनामे में  जिक्र होगा कि तीन तलाक ना दिया जाए। सभी काजियों को जरूरी निर्देश दिए जाएंगे। बहरहाल, अखिल भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने बोर्ड की पहल को नकार दिया है। मुस्लिम महिलाएं कोर्ट और देश की संसद से अपना हक मांग रही हैं। बोर्ड को यह जताने की जरूरत नहीं है कि भारत के मुसलमानों के एक मात्र रहनुमा यही लोग हैं। 

व्यावहारिक धरातल पर यह लड़ाई आसान नहीं है। 1986 में मुस्लिम महिलाओं के हक में लड़ते हुए 62 साल की शाहबानो सुप्रीम कोर्ट में जीतने के बावजूद इसलिए हार गई थी कि केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसने वोटों की राजनीति में तुष्टिकरण को तवज्जो देते हुए संविधान-संशोधन करके फैसले को पलट दिया था। तीस साल बाद, 2016 में उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले ही आधी लड़ाई जीत चुकी हैं। और, यह भी तय है कि चाहे जो फैसला हो, इस बार संविधान संशोधन करके शाहबानो की तरह शायरा बानो को नहीं हराया जाएगा। मोदी-सरकार पर यह भरोसा तो किया जा सकता है। [ लेखक उमेश त्रिवेदी सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

 

Dakhal News 24 May 2017

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