नदियों के सवालों को बांझ बनाती राजनीतिक जुमलेबाजी
nadi prdushan

उमेश त्रिवेदी 

बीते गुरुंवार को जब केन्द्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री अनिल माधव दवे की अंतिम यात्रा से जुड़ी प्रकृतिजन्य वसीयत के बहाने मध्य प्रदेश की नर्मदा नदी की लहरों मे घुला प्रदूषण पूरे देश की चिंताओं को उव्देलित कर रहा था, लगभग उसी समय दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गंगा की अविरलता के सवाल पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आंखों की कोरों में आंसू छलकते दिखाई दे रहे थे। पिछले 150 दिनों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा-यात्रा के कारण सिर्फ नर्मदा ही नहीं, देश की हर नदी से जुड़े सवालों का आकार बड़ा हुआ है, लेकिन भविष्य के गर्त में छिपे उनके उत्तर और समाधानों को लेकर आश्वस्ति के भाव कंही भी नजर नहीं आ रहा है। 

गुरुवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गंगा की बदहाली को लेकर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में नीतीश कुमार और बुधवार को अमरकंटक में सम्पन्न नर्मदा-यात्रा के समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नदी-बचाओ मुहावरों की भाव-भूमि में शब्दों की रंगत के अलावा कोई फर्क नहीं था। विडम्बना है कि सरकारी आयोजनों में नदियों की दुर्दशा को लेकर राजनेताओं के आंसू उन नदियों से ज्यादा बहते हैं, जो उनकी चिंताओं और चेतना के केन्द्र में होती हैं। नेताओं की गीली आंखों और नदियों की सूखी लहरों के बीच बिलबिलाती सच्चाइयों ने नदियों के सवालों को बांझ बना दिया है। 

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बचपन नर्मदा के किनारों पर नर्मदाष्टक के आव्हानों के बीच सिर नवाते गुजरा है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आर्द्र सुरों में गंगा की कहानियों में वही भक्ति-भाव नजर आता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गंगा की अविरलता में बाधक गाद समस्या पर केन्द्रित सेमीनार में नीतीश कुमार की मनोभावना में यादों के भीगेपन ने विषयवस्तु को भावुक बना दिया था। नीतीश कुमार ने  कहा कि  बचपन के दिनों में मैं गंगा नदी से पानी भर कर लाया करता था। उस समय गंगा का जल काफी स्वच्छ था। आज स्थितियां बदल गईं हैं। आज गंगा का प्रवाह मार्ग गाद से पट गया है। गंगा की गोद में सालों से जमा हो रही गाद के कारण जीवनदायिनी गंगा तबाही का सबब बनती जा रही है। गंगा की अविरलता ही गंगा की निर्मलता को बनाए रखने का एक मात्र उपाय है। गंगा की दशा पर भावुक नीतीश कुमार के इस कथन के मायनों को गहराई से खंगालना होगा कि ’गंगा का हाल देखकर उन्हे रोना आता है।’  नदी, जंगल और जमीन के नाम पर होने वाले  सेमीनार शब्दाडम्बर और राजनीतिक जुमलेबाजी के अलावा कुछ भी सिध्द नहीं हुए हैं। 

दिल्ली-सेमीनार से पहले फरवरी 2017 के आखिरी सप्ताह में पटना में आयोजित सेमीनार में पानी का नोबेल पुरस्कार माने जाने वाले स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित जल पुरूष राजेन्द्र सिंह ने कहा था कि इस समय देश में नदियों को बचाने के लिए, बिहार और मध्य प्रदेश में दो अभियान चल रहे हैं। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अभियान जहां चुनावी लगता है, वहीं बिहार में नीतीश का अभियान हकीकत के करीब नजर आता है। बिहार सरकार जहां बीमारी के कारणों को जानने और उसका निदान ढूंढने की कोशिश कर रही है, वहीं मप्र सरकार बिना मर्ज जाने दवा देने की बात कर रही है। जबकि केन्द्र सरकार का नमामि-गंगे अभियान सिर्फ ठेकेदारों को लाभ देने की स्कीम है। हालांकि 11 मई को मप्र के नर्मदा अभियान में भाग लेते हुए राजेन्द्र सिंह ने आयोजकों की पीठ थपथपाते हुए कहा था कि इस मामले में शिवराजसिंह की नीयत और नीति की कोई गुंजाइश नही हैं। राजनीतिक- टिप्पणियों  से बचते हुए राजेन्द्रसिंह ने कहा कि ऐसे अभियान हर हाल में सफल होना चाहिए। लेकिन यह क्यों नही हो पा रहा है, इसका उत्तर हमसे दो दिन पहले बिछड़े केन्द्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री अनिल माधव दवे ने यूं दिया है- पिछले पच्चीस-तीस सालों में नदी-पर्यावरण के सुधार के मामले में यदि हम किसी मुकाम पर नहीं पहुंच पाएं तो इसका एक मात्र कारण यह है कि हम प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारे द्दष्टिकोण में खोट है। अपरिपक्व द्दष्टि शासन-प्रशासन मे समाज संचालन के निरर्थक मार्ग तय करती है,जो सभी पर्यावरणीय संकटो की जड़ है।[लेखक उमेश त्रिवेदी सुबह सवेरे के प्रधान संपादक हैं ]

Dakhal News 22 May 2017

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