अनिल दवे की तरह कैसे लिखें मौत की क्षणिकाओं का स्वागत-गीत...?
अनिल दवे

 उमेश त्रिवेदी

अनिल माधव दवे का यूं ही लंबे चिर आकस्मिक-अवकाश पर चले जाना किसी की समझ में नही आ रहा है... हमउम्र राजनीतिक संगी-साथी, लहरों पर सवार हमराह नर्मदा-यात्री, पर्यावरणविद, स्वयंसेवी संगठनों के एक्टिविस्ट और परिचितों के लिए उनका चिर-अवकाश पर चले जाना खामोश सदमा है। अनिल माधव दवे की उम्र इतनी नहीं थी कि वो मृत्यु के आगे यूं आत्मसमपर्ण करते, लेकिन उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के अनछुए पहलू कहते हैं कि वो जिंदगी और मौत के दार्शनिक और शास्त्रीय व्दंद को अपनी आध्यात्मिकता के सहारे काफी पहले जीत चुके थे। 

      जिंदगी की फलसफाना नसीहतें खुद अपनी नब्ज टटोलती महसूस होती हैं कि जिंदगी के सबसे सक्रिय और उच्चतम काल-खंड में अनिल माधव दवे की तरह मौत की क्षणिकाओं के स्वागत-गीत को कैसे लिपिबध्द किया जाए? अनिल दवे की अंतिम इच्छाएं और वसीयत चौंकाती है... चौंकाती इसलिए नहीं है कि वो मात्र 61 वर्ष की उम्र में हमारे बीच से चले गए... चौंकाती इसलिए हैं कि षष्ठि-पूर्ति के पांच साल पहले ही उन्होंने आसमान से टूटते उन सितारों के भाग्य को पढ़ लिया था, जो गतिशीलता के सर्वोच्च शिखर पर दौड़ते हुए अंधेरे में गुम हो जाते हैं। 

     भारतीय समाज में वसीयतनामा लिखना सामान्य घटना है, लेकिन मात्र पचपन-छप्पन साल की उम्र में पेथोलॉजी-जांचों के हर इंडेक्स पर खरा व्यक्ति अपनी वसीयत नहीं लिखता है। स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के राजनीतिक दौर में अनिल दवे इसके अपवाद सिध्द होते हैं। उनके निधन के बाद उनके भाई ने उनकी वसीयत को जारी किया है, जो उन्होंने पांच साल पहले 23 जुलाई 2012 को लिखी थी। उम्र का यह मुकाम अर्जित करने वाला दौर माना जाता है। अनिल दवे एक ऐसी बड़ी राजनीतिक हस्ती थे, जिन्होंने आसमान की उड़ान भरने के लिए अपने पंख पसारे ही थे। सक्रियता के अद्भुत क्षणों में अपने अंतिम संस्कार की वसीयत और इच्छा को लिपिबध्द करने की घटना से पता चलता है कि वो किस मिट्टी से बने हैं?  जितना उनकी मौत ने चौंकाया है, लगभग उतना ही उनकी वसीयत ने चौंकाया है। 

    उनकी वसीयत जहां पर्यावरण के प्रति उनकी प्रतिबध्दता को रेखांकित करती है, वहीं नर्मदा के प्रति अनुराग को प्रकट करती है। अनिल दवे ने वसीयत में लिखा है कि मेरा दाह-संस्कार बांद्राभान में वहीं किया जाए, जहां हर साल नदी-महोत्सव होता है। दवे ने उनकी स्मृति में उनके नाम पर स्मारक, प्रतियोगिताएं और पुरस्कार जैसी गतिविधियों से बचने की इच्छा व्यक्त की है। यह आडम्बरपूर्ण राजनीति से उनके विरोध का परिचायक है। यदि स्मृति में कुछ करना ही चाहते हैं तो पेड़ लगाएं और पेड़ों को पालें भी। नदी-जलाशयों के संरक्षण की बात भी इसीमें जुड़ी है। 

   एक सार्वजनिक जीवन की सार्वजनिक वसीयत निश्चित ही उन राजनेताओं के लिए सबक है, जिनकी पूरी जिंदगी कुछ हासिल करने में गुजर रही है। वसीयत में समाज के सीखने के लिए एक तत्व यह भी है कि उन्होंने यह सख्त हिदायत दी है कि दाह-संस्कार के बाद उत्तर क्रिया के रूप में भी सिर्फ वैदिक कर्म ही हों। 

      अनिल दवे की मौत से उपजी अनिश्चितता की इस धमक ने लगभग हर उस व्यक्ति को व्यग्र कर दिया है, जिसने उनकी सक्रियता को अंतिम क्षणों तक देखा है। दवे पिछले साल जुलाई में केन्द्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री बने थे। यह विभाग उनकी चाहतों को फलीभूत करने वाला विभाग था, लेकिन दुर्भाग्य है कि वो साल भर भी इस पद पर काम नहीं कर पाए। अब वो भोपाल में अपने प्रिय 'नदी के घर' में कभी नहीं लौटेंगे। अनिल दवे ने नर्मदा के किनारे स्थित बांद्राभान की उस माटी में रचने-बसने का फैसला कर लिया है, जहां वो हर साल नदी-महोत्सव का आयोजन करते थे। 

     अनिल दवे सादगीपूर्ण भव्यता के साथ जिंदगी के हर काम को अंजाम देते थे। सिंहस्थ का वैचारिक-अनुष्ठान और विश्व हिन्दीे सम्मेलन इसके साक्षी हैं। लेकिन किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि वो अपनी मौत के आयोजन को भी नैतिकता के उच्च प्रतिमानों से यूं गढ़ेंगे कि लोगों के सिर खुद ब खुद झुकने लगें...। शायद इसीलिए उनकी वसीयत को सुनने के बाद राजनीति का मर्सिया-राग ठिठक सा गया है। मातम का अंदाजे-बयां फलसफाना हो चला है। [ लेखक उमेश त्रिवेदी भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। ]

Dakhal News 19 May 2017

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