जावली का नायक अनिल दवे
अनिल माधव दवे

 

अनिल माधव दवे यानी  ‘जावली’  का वो रणनीतिकार जिसने मध्यप्रदेश में एक नहीं छह चुनाव में अपनी दूरदर्शिता और प्रबंधन क्षमता का लोहा मनवाया, जिसका आगाज उन्होेंने दिग्विजय सिंह की सरकार को उखाड़ फेंकने के साथ किया था। सियासत के मोर्चे पर मध्यप्रदेश में स्थापित कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करना और सत्ता में रहते हुए बीजेपी को वापस सत्ता में लाना, वो भी एक नहीं दो बार उनकी विलक्षण, सियासी सकारात्मक सोच एवं कुशल प्रबंधन की कार्यक्षमता के मोर्चे पर उनकी उपलब्धियों को बयां करता है।

प्रदेश संगठन का नेतृत्व बदलता रहा, वह भी तब जब चुनाव की कमान उमाभारती के बाद शिवराज के पास जाकर बदलती रही, जिनके विरोधाभासी व्यक्तित्व के बावजूद अपनी योग्यता के दम पर दवे दोनों के साथ चुनाव में समन्वय बनाने में सफल रहे। ‘जावली’ से निकला चुनावी नारा आज भी लोगों के जेहन पर छाया रहा, जब 2003 में मिस्टर ‘बंटाधार’ का जुमला कांग्रेस के लिए परेशानी का सबक बना। आखिर शीर्ष नेतृत्व खासतौर से मोदी ने उनकी सुध ली और विलक्षणता को पहचाना। प्रधानमंत्री ने उन्हें अपनी कैबिनेट में शामिल कर वो सम्मान दिया जिसके वो हकदार थे और सूबे की राजनीति में उन्हें दूसरों से अलग रखता था।हाल ही में राज्यसभा के लिए एक बार फिर नवाजे गए दवे का दबदबा अब दिल्ली की राजनीति में देखने को मिला। जिनके खाते में उपलब्धियों के नाम पर बहुत कुछ है, लेकिन संघ के इस निष्ठावान और समर्पित स्वयंसेवक ने जो धमाका किया है उसका असर मध्यप्रदेश की राजनीति में देखने का इंतजार रहेगा। ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि सांसद रहते मध्यप्रदेश की राजनीति में अभी तक उपेक्षा के शिकार हुए अनिल माधव दवे की यह नई पारी बीजेपी की अंदरूनी राजनीति खासतौर से सूबे की सियासत में क्या गुल खिलाती है, जहां से पहले से ही सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज, उमाभारती, नरेन्द्र तोमर, थावरचंद गेहलोत जैसे दिग्गज दिल्ली में अपना दबदबा बनाए हुए हैं। प्रकाश जावड़ेकर पहले ही मंत्री बनकर राज्यसभा में मध्यप्रदेश से भेजे जा चुके हैं। दूसरी ओर दिल्ली में संगठन की राजनीति में कैलाश विजयवर्गीय सबसे पॉवरफुल महामंत्री के तौर पर अमित शाह की टीम का हिस्सा बने हैं तो प्रभात झा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। दवे की गिनती ऐसे चिन्तक और विचारक के तौर पर होती है जिन्होंने खुद चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन माइक्रो मैनेजमेंट के दम पर कईयों को चुनाव जिताकर विधायक, सांसद बनवाने में बड़ी भूमिका निभाई।

मोदी सरकार के पहले कैबिनेट विस्तार में शामिल अनिल माधव दवे को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। वो पहलेभी दो बार उच्च सदन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। मध्यप्रदेश की राजनीति में उनका नाम सुर्खियमें तब आया जब दिग्विजय सिंह की 10 साल की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए ‘जावली’ को अस्तित्व में लाया गया, जिसकी कमान अनिल दवे के हाथों में थी, जिसका मकसद विधानसभा 2003 में उमाभारती की अगुवाई में बीजेपी की सरकार बनाना था, जिसमें बंद कमरे की रणनीति से लेकर चुनाव प्रबंधन के मोर्चे पर पार्टी को अपनी क्षमता का आंकलन करने पर मजबूर किया। इससे पहले विभाग प्रचारक रहते हुए 1999 में वे परदे के पीछे तक सीमित रहे, जब उमाभारती ने भोपाल से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। इस बीच समय के साथ बीजेपी की अंदरूनी राजनीति में समीकरण बदलते गए, लेकिन जब चुनाव आते खासतौर से लोकसभा और विधानसभा तो यह चेहरा पार्टी की जरूरत बनकर सामने आता रहा और सरकार बनने के बाद गुमनामी में खो जाता। हाल ही में एमजे अकबर के साथ अनिल दवे को मध्यप्रदेश से राज्यसभा में भेजकर पार्टी ने उनकी योग्यता को जरूर सलाम किया। इससे पहले प्रतिष्ठा से आगे जब पद और सम्मान की बात होती तो यह शख्स पीछे रह जाता। बावजूद इसके विधानसभा और लोकसभा के तीन-तीन चुनाव से आगे बढ़कर अनिल दवे ने ‘नर्मदा समग्र’ से जोड़कर जिस मिशन से खुद को आगे बढ़ाया उसने उन्हें नई चुनौती से जुड़े कुछ अलग कर दिखाने का मौका भी दिया चाहे वो ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी शोध हो या फिर विश्व हिन्दी सम्मेलन और सिंहस्थ की सुर्खियां बना वैचारिक महाकुम्भ तो दवे ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ही नहीं बल्कि संघ के चिन्तकों को भी यह सोचने को मजबूर कर दिया, क्या अनिल दवे का पार्टी और देशहित में और बेहतर उपयोग किया जा सकता है। सिंहस्थ जिसे नई पहचान देने की आवश्यकता प्रधानमंत्री मोदी ने वैचारिक महाकुम्भ के जिस मंच से जताई मेजबान के तौर पर उसके हीरो शिवराज सिंह चौहान जरूर रहे, लेकिन दवे ने जिस तरह इस इवेन्ट में संघ को साधा उसका नतीजा आज सामने है।

अनिल माधव दावे जिन्हें हाल ही में राज्यसभा में भेज गया है वो पहले भी दो बार उच्च सदन में मध्यप्रदेश प्रतिनिधित्व कर चुके हैं । मध्यप्रदेश की राजनीति में उनका नाम सुर्ख़ियों में तब आया जब दिग्विजय सिंह की १० साल की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए जावली को अस्तित्व में लाया गया, जिसका कमान अनिल दवे के हांथो में थी ।

जब किसी और ने नहीं प्रधानमंत्री मोदी ने कैबिनेट के विस्तार के दौरान मध्यप्रदेश के दिल्ली में कई दिग्गजों के दबदबे को नजरअंदाज करके उन्हें मंत्री बनाने का फैसला लिया। मोदी-शाह के युग में अनिल दवे की क्षमताआें का आंकलन भले ही देर से किया गया, लेकिन आडवाणी के युग में जब नितिन गडकरी की ताजपोशी में इन्दौर में राष्ट्रीय परिषद् की बैठक बुलाई गई थी तब दिग्गजों के बीच जिसमें मोदी मुख्यमंत्री के रूप में शामिल थे तब अनिल दवे का प्रजेन्टेशन खासा सुर्खियों में था, जिन्होंने राजनीति में रहते हुए सामाजिक सरोकार से जुड़े दायित्व को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा, जिसे संघ के एजेंडे से जोड़कर देखा जाता है और अब बीजेपी भी अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए जनप्रतिनिधियों की गाइड लाइन बना चुकी है। समाज कल्याण से जुड़े विषयों पर अपनी पकड़ को साबित कर नर्मदा किनारे बान्द्राभान में नदियों को नदियों से जोड़कर उसके अस्तित्व की पैरवी की, जिसे अटलबिहारी वाजपेयी की सोच से जोड़कर देखा गया और अब मोदी सरकार में गंगा मंत्रालय के तौर पर इस लाइन पर आगे बढ़ाया गया।

अनिल माधव दवे का केन्द्र में भाजपा की मोदी-सरकार में राज्यमंत्री बनना कोई अनहोनी राजनीतिक-घटना नहीं है, बल्कि सार्वजनिक जीवन में उस नायक के आकार लेने की प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसकी कल्पना उन्होंने ने खुद अपनी पुस्तक- ‘शिवाजी और सुराज’ की इब्तिदा करते हुए की थी। अनिल ने पुस्तक में प्रतिमा निर्माण की मनोदशाओं के शाब्दिक-रूपान्तरण ‘मनोगत‘ में खुद को व्यक्त करते हुए लिखा है कि– ‘धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, व्यवसायिक समाज में किसी भी क्षेत्र में नेतृत्व करने वाले हर उस नायक की एक प्रतिमा होती है, जो उस व्यक्ति के विचार, व्यवहार, आचरण, निर्णयों तथा उसके प्रति समाज के मन में उपजी अवधारणाओं के कारण बनती है।

Dakhal News 18 May 2017

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