भारतीय मीडिया: कैद में है 'बुलबुल', 'सैयाद' मुस्कराए?
भारतीय मीडिया

उमेश त्रिवेदी

22-23 मार्च 2017 को राज्यसभा में भारत में मीडिया के दर्दनाक हालात पर सम्पन्न एक सार्थक बहस को 'ब्लैलक-आउट' करने वाले भारतीय मीडिया में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर पत्रकारिता की आजादी पर जारी शानदार बहस (?) सुनने के बाद कतई भ्रमित होने की जरूरत नहीं हैं कि हिन्दुस्तान में प्रेस की आजादी बेहतरीन दौर से गुजर रही है। दुनिया भर में 3 मई को मनाए जाने वाले विश्व 'प्रेस फ्रीडम-डे' पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीटर पर यह  औपचारिक संदेश दिया है कि 'विश्व प्रेस-फ्रीडम डे' पर हम स्वतंत्र और बहुमुखी पत्रकारिता का समर्थन करते हैं। यह लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है।' 

सवा महीने पहले राज्यसभा में भी कई विपक्षी नेताओं ने 'प्रेस-फ्रीडम' के मसले पर भारत में मीडिया की बरबादी को लेकर कुछ इसी प्रकार की भावनाओं को व्यक्त किया था।  राज्यसभा की बहस में शरद यादव जैसे कई नेताओं ने कई सार्थक सवाल उठाए थे। राज्यसभा व्दारा व्यक्त प्रेस की आजादी से जुड़ी चिंताओं का 'ब्लैपक-आउट' करके मीडिया के कर्ताधर्ताओं ने खुद ही काला नकाब पहन लिया था। भारत में मीडिया का स्व-आरोपित 'ब्लैलक-आउट' ही मीडिया का असली चेहरा है। भारत दुनिया के उन 72 देशों में शामिल है, जहां प्रेस की आजादी गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 180 देशों में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने वाला भारत वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 136 वें स्थान पर खड़ा है। पिछले साल की तुलना में भारत तीन स्थान नीचे उतरा है। 

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम के ये आंकड़े 2002 से जारी किए जा रहे हैं। इस रैंकिंग में विविधता, आजादी, वैधानिक-व्यवस्थाओं और पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़े कारकों का अध्ययन किया जाता है। इन 180 देशों के विशेषज्ञों से एक प्रश्नावली के आधार पर जानकारी जुटाई जाती है। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' की रिपोर्ट का सबसे चौंकाने वाला खुलासा यह है कि लोकतांत्रिक देशों में प्रेस की आजादी पर परोक्ष-अपरोक्ष नियंत्रण के चील-कौए मंडरा रहे हैं और उनसे बचाव के मामले में वहां की सरकारों का अजीबोगरीब उपेक्षा का भाव नजर आ रहा है। प्रेस की आजादी की यह हदबंदी बेहद चिंताजनक है। 

तानाशाह देशों का जिक्र बेमानी है, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भी इससे अछूते नहीं हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव-अभियान में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जिस प्रकार मीडिया विरोधी-अभियान चलाया, उन्हे अच्छे संकेत नहीं कहा जा सकता है। ब्रिटेन में 'ब्रेक्जिट' जनमत संग्रह के दौरान मीडिया को हाशिए पर ढकेलने की कोशिशें चेतावनी हैं कि आने वाले दिन मीडिया के लिए मुनासिब नहीं हैं। भारत में सूचना के अधिकारों को बेड़ियों में जकड़ा जा रहा है और वैचारिक-खुलेपन को राष्ट्रसवाद की लक्ष्मण-रेखाओं में घेरा जा रहा है। 

वैचारिक लक्ष्मण-रेखाओं का रेखांकन और राष्ट्रहित के नाम पर सूचना के दायरों को समेटना प्रेस की आजाद आबोहवा में जहर घोलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया के साथ यह सवाल भी नत्थी है कि सरकारी प्रतिष्ठान इतने दुस्साहसी कैसे हो पा रहे हैं कि वो प्रेस की आजादी की हदबंदी और नसबंदी करने लगें...। मोटेतौर पर राजनेताओं और समाज में यह धारणा विकसित होती जा रही है कि मीडिया के अपने निहित-स्वार्थों और पूर्वाग्रहों ने तटस्थ पत्रकारिता के मानदंडों को छोटा कर दिया है। अमेरिका में मीडिया के प्रति डोनाल्ड ट्रम्प की बदमिजाजी और भारत में वैचारिक-लक्ष्मण-रेखाओं की घेराबंदी इन कमजोरियों को लिपिबध्द करने वाली है। आर्थिक-सर्वेक्षण कहते हैं कि भारत में मीडिया का कारोबार 1300 अरब रूपयों के आंकड़े को छू रहा है। मीडिया कारोबार की दुनिया में मानवीय सरोकारों और लोकतंत्र की संवेदनाओं का कद खुद छोटा होता जा रहा है। भारत में मीडिया काला-सफेद धंधा करने वाले सभी कारोबारियों का मुखौटा बन चुका है। सही अर्थों में एक व्यवसाय के रूप में मीडिया का आकलन कहता है कि यह पूंजी और कॉरपोरेट घरानों की कारोबारी जुगलबंदी है, जिसके तार निहित-स्वार्थों की लय पर तान छेड़ते हैं। सरकारों का यह उपेक्षा-भाव उन परिस्थितियों की देन है, जिन्हें मीडिया ने खुद अपने सामने खड़ा कर लिया है। सवाल यह है कि भारत में प्रेस की आजादी से जुड़ी इऩ 'इंटरनेशनल-एकडेमिक' चिंताओं को वैधानिकता और नैतिकता के  कौन से तराजू पर तौलना मुनासिब होगा। एक तराजू वह है, जहां मीडिया ने खुद को अनैतिक-दुराग्रहों के चक्रव्यूह में कैद कर रखा है। दूसरे तराजू में संवैधानिक व्यवस्थाओं की छत्रछाया झीनी पड़ने लगी है, जिसके लिए सरकारी प्रतिष्ठान उत्तरदायी हैं। भारत का मीडिया उस बुलबुल की तरह है, जिसने खुद को  निहित स्वार्थों के पिंजरे में कैद कर लिया है। पिंजरे के सामने यदि सत्ता के सैयाद मुस्कुरा रहे हैं तो इसके लिए दोषी किसे माना जाएगा...?  किसी ने ठीक ही कहा है- 'कैद में है बुलबुल सैयाद मुस्कुराए, रहा भी न जाए, कुछ कहा भी न जाए...?' मीडिया जब तक खुद अपनी बेडियां नहीं तोड़ेगा, तब तक प्रेस की आजादी से जुड़ी इन रिपोर्टों को तवज्जो नहीं मिल पाएगी।[लेखक भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]

Dakhal News 4 May 2017

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