अयोध्या मसला : तर्क या मिल्कियत का मामला नहीं
अयोध्या मसला

भरतचन्द्र नायक

विश्व के लब्ध प्रतिष्ठित इतिहासकार मौलाना आजाद स्मृति व्याख्यान माला में भाग लेने आये थे। तब उन्होनें आक्रांताओं द्वारा विजित देशों में की गयी ज्यादियतों का हवाला देते हुए कहा था कि आक्रांता विजित देश में अपने समर्थन में भवन प्रासाद स्मृति के रूप में बनाते रहे है। लेकिन इन स्मारकों का उद्देश्य मजहबी नहीं सियासी होता आया है। इसलिए साम्प्रदायिक भावुकता से इन स्मारकों को देखना अपने आपको धोखा देना है। विश्व इतिहासकार अर्नोल्ड टोनवी ने बताया कि 1614 में रूस ने पोलेंड के वारसा पर अपना अधिकार जमा लिया था। रूस ने अपनी विजयी महत्वाकांक्षा में ईस्टर्न आर्थोडाॅक्स क्रिश्चियन केथेडूल प्रमुख स्थान पर बना डाला। रूस का इसके पीछे उद्देश्य यही था कि पोलिस में यह भावना बैठ जाये कि उनका असल मालिक रूस है। बाद में 1918 में पोलेंड की आजादी के बाद केथेडूल को जमीदोंज करने में पोलिस ने वक्त नहीं लगाया। उन्होनें भारत सरकार की इस बात के लिए खुले मन से प्रशंसा की कि उसने औरंगजेब की मसजिदों को सम्मान के साथ वजूद में रहने दिया। उलटे भारत सरकार पुरातत्व विभाग मुगलकालीन स्मारकों का संधारण करता है, जबकि स्मारकों का उद्देश्य सिर्फ आक्रान्ता, विदेश से भारत आये आक्रांताओं का वर्चस्व याद दिलाना, भारतीय अस्मिता को आहत करना है। अर्नोल्ड टोनवी ने भारतीयों की सहिष्णुता को विश्व में सर्वोच्च निरूपित किया है। ऐसे में अयोध्या में राम मंदिर को ढहाये जाने और विध्वंस में बचे अवशेषों को जोड़कर बाबर द्वारा मजिस्द बनाये जाने का मंतव्य समझना कठिन नहीं है। ऐसे में बरसों से अदालत में चल रहे इस विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले को यदि हिन्दू-मुस्लिम के बीच सुलह सफाई से हल करने को कहा है तो यह अदालत की दूरदर्शितापूर्ण परामर्ष है। सर्वोच्च न्यायालय ने यहां पर सदाशयता बतायी कि जरूरत पड़ने पर न्यायालय मध्यस्थता करने को भी तैयार है। मुख्य न्यायाधीश ने माननीय न्यायाधीश की सेवाएं देने का प्रस्ताव किया है। 

अध्योध्या में राम मंदिर विवाद पर तकनीकी रूप से स्पष्ट है कि आक्रान्ता बाबर ने राम मंदिर के विशाल ढांचे को ध्वस्त किया और मसजिद का निर्माण करा दिया, जिसे बाद में बाबरी मसजिद कहा गया और कार सेवा करते हुए आवेश में कार सेवकों ने ढांचा जमीदोंज कर दिया। इस विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि रामलला जहां तम्बू के नीचे विराजमान है, उस भूमि पर मंदिर के स्थान पर मंदिर बनाया जाये। एक तिहायी भूमि अखाड़े को शेष आवेदक मुस्लिम समाज के हक में जायेगी। लेकिन फैसला माना नही गया और सर्वोच्च न्यायालय में विवाद पहुंचा जहां सर्वोच्च न्यायालय ने सुलह करने की सलाह दी है। अगर इस सद्परामर्श पर भी असहमति जताते हुए कुछ मुस्लिम संगठन मामले पर न्यायालय के निर्देश की अवमानना करते हुए जिद पर अड़े है। न्यायालय के आदेश के समर्थन में कुछ अल्पसंख्यक संगठन आगे भी आये है। लेकिन उनकी आवाज कमजोर मानी जा रही है। मजे की बात यह है कि अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहाये जाने के बाद अदालत में जिस बुजुर्ग मुस्लिम हाशिम अंसारी ने याचिका दर्ज की थी, उसका बाद में हृदय परिवर्तन हुआ और उसने सुलह सफायी की बात करते हुए इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि मजहब के नाम पर आक्रामक तेवर अपनाने वाले लोग खाते-पीते लड़ रहे है और आराध्य रामलला एक तंबू में ऐसे मौसम की मार झेल रहे है कि उन्हें भोग लगना भी मयस्सर नहीं है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज जब परस्पर संवाद का अवसर मिला है, हासिम अंसारी जन्नत सिधार चुके है, मुस्लिमों के बीच ऐसे नेक इंसानों की कमी है, अहंकार और तर्क परोसा जा रहा है। वे भूलते है कि राममंदिर विवाद आस्था का विषय है, यह जायदाद के बंटवारे का मामला नहीं है। आस्था में तर्क कम हृदय की विशालता, संवेदशनीलता अपेक्षित होती है। 

राम जन्मभूमि जमीन के विवाद में उच्च न्यायालय अपना फैसला पहले ही दे चुका है, जिसे मान्य नहीं किया गया। अस्मिता से जुड़े मामले को दीवानी विवाद मानते हुए जो लोग अंतिम रूप से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की बात कहने पर अड़े है, वे मुगालते में है कि विवाद में उनके पक्ष में ही निर्णय सुनाया जायेगा। कुछ लोग देश की न्याय व्यवस्था पर इस मामले के निर्णय कराने का दायित्व थोप रहे है, उनमें दूरदर्शितापूर्ण सोच की आस्था केन्द्रित भावना और न्यायालय के प्रति सम्मान की कमी है। कमी इस बात से जाहिर हो जाती है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा के मोह में न्यायपालिका की मर्यादा नहीं समझ पा रहे है, वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ का निर्णय एक आदर्श है जो दोनों पक्षों को सम्मान देता है और उनकी सदाशयता पर विश्वास करता है। राष्ट्र में समरसता का स्थायी भाव जगाता है। आत्म परीक्षण का संकेत करता है। आज समस्या यह है कि भावनात्मक विवाद न्यायालय की देहलीज पर पहुंचते है और जब लंबे खिंचने के बाद उन पर अदालत का निर्णय आता है तो सरकारें निर्णय को अमल में लाने में अपने को असमर्थ पाती है। दुनिया की महाशक्ति अमेरिका भी ऐसे हालात से गुजरा है। इसलिए भारत को सबक लेने की आवश्यकता है। अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय शक्तिमान है और अमेरिकी न्याय व्यवस्था हर मामले में हमारी व्यवस्था से परिपक्व और शासन व्यवस्था साधन संपन्न है। फिर भी 1930 में जब एक मामले पर निर्णय आया तो अमेरिका प्रशासन के हाथ-पैर फूल गये। तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट को कहना पड़ा था कि निर्णय का अनुपालन भी सर्वोच्च न्यायालय ही करे, सरकार सक्षम नहीं है। हमें भारतीय न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और न्याय की अस्मिता को उस दिशा में धकेलना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। देश में सर्वधर्म समभाव से सभी जी रहे है। उन्हें भावनात्मक अतिरेक में धकेलना बुद्धिमानी नहीं है। 

परस्पर विश्वास जीतकर ले-देकर इस समस्या का समाधान कर आने वाली पीढ़ी को सद्भाव से जीने, आजाद मुल्क की तरह बरताव करने, राष्ट्र की अस्मिता को कायम रखने का संदेश देना है। इसलिए अहंकार और जिद् पर अड़े रहने का यह वक्त नहीं है। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की हम सभी संतान है, हिन्दु और मुसलमान, क्योंकि जो भारत में जन्मा है उसके आदिपुरूष श्रीराम ही थे। धर्म परिवर्तन एक आकस्मिता थी जो दंड के भय, लालच और प्रलोभन से विवशता बनी। लेकिन धर्म परिवर्तन मात्र से पुरखे तो नहीं बदल जाते। इस बात पर हमें गौरव भी महसूस करना है कि भारत ही हमारा वतन है और श्रीराम हमारे आदर्श पूर्वज है। राम मंदिर अयोध्या का हल वार्तालाप से ही निकलेगा। सर्वोच्च न्यायालय को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के समय राष्ट्रपति जी ने कहा था कि वे समस्या का समाधान बतावें। तब सर्वोच्च न्यायलय ने दूरदर्शितापूर्ण उत्तर दिया था कि यह तो भावना का ज्वार है, इसे अपने ढंग से शांत होने दीजिये। एक कौम के रूप में हमें संकेत है कि आस्था में दखल देने के बजाय भाईचारा और बढ़प्पन का परिचय दें।

अयोध्या मामले को मंदिर की लड़ाई कहकर हम वास्तविकता से मुंह नहीं छिपा सकते। वास्तव में यह राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण का संदेश है। भारत में थोपी गयी गलत धारणाओं के अवगुंठन से सच्चाई के अविष्कार का जन अभियान है। सोमनाथ के मंदिर के निर्माण के पीछे जो राष्ट्रवाद का आवेग था, अयोध्या मामला इसका अपवाद नहीं है। लेकिन सोमनाथ का भव्य मंदिर बनाना उसके पीछे महात्मा गांधी की जबरदस्त सहमति थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल और तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद तो सोमनाथ मंदिर के निर्माण के बाद सोमनाथ पहुंचे और उद्घाटन के भव्य समारोह में भाग लेकर गौरवान्वित हुए थे। अयोध्या में राममंदिर के पीछे किसी दल, संगठन विशेष की भूमिका समझना न्यायसंगत नहीं है। यह सांस्कृतिक नवजागरण अपने को पहचानने का एक सात्विक अभियान बना है, जिसकी निरंतरता 1984 से दिखायी देती है। मामला आस्था बनाम कानून नहीं समझना चाहिए। बल्कि आस्था को कानून का समर्थन और सद्इच्छा के संबल की आवश्यकता है। महान भारत श्रेष्ठ भारत के नारे को सफल बनाने की परीक्षा की घड़ी है। न्यायालय के सहमति बनाने के आदेश पर असहमति दर्ज करने में साहस की आवश्यकता नहीं है। साहस इस बात का दिखाने का समय है कि राष्ट्रहित में अपनी सियासत, हार-जीत का जज्बा छोड़कर कौन आगे बढ़ता है और राष्ट्रीय भावनात्मक एकता का अमिट किरदार बनने का सौभाग्य प्राप्त करता है। साम्प्रदायिक संकीर्णता को त्याग कर आजादी की जंग जीती, लेकिन आजादी के बाद साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन कर हम आज पराजित महसूस कर रहे है। हमारे सिर पर उजला दाग न लगे यह अहम प्रश्न है। जिस तरह मक्का मदीना पाक है, अयोध्या के प्रति हिन्दू की आस्था उसपे कम नहीं है। भारत को दुनिया ने विश्व गुरू रहने का गौरव दिया है। क्या हम एकता के हित में कुछ कर पाने में असहाय है। इस तर्क को खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि अनेक मुस्लिम बहुल देशों में पाक मसजिदों को आवश्यकतानुसार शिफ्ट किया गया है। विवादित स्थल पर मसजिद बनाना वर्जित है, नमाज ऐसी पाक इबादत है जो कहीं पर भी अता की जाये स्वीकार्य होती है। ऐसे में सियासी ढंग से रंग देना उचित नहीं है।

अयोध्या विवाद से लंबे समय तक संबद्ध रहे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त माननीय न्यायाधीश पलोक वसु बताते है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश के संदर्भ में सुलह के द्वार अवश्य खुलेंगे। बाबरी मजिस्द की कानूनी लड़ाई आरंभ करने वाले हासिम अंसारी ने भी इंतकाल के पहले बताया था कि कद्रदान लोग आगे आकर सुलह की राह निकालेंगे। हासिम अंसारी अंत काल में ईश्वर को प्यारें होने के पहले इस बात पर अफसोस जता रहे थे कि सियासतदां अपनी सियासत कर रहे है और रामलला कानूनी बंधन में बंधक है। जितना धन इस विवाद पर पानी की तरह बहाया गया है, उतने में अयोध्या और फैजाबाद जिला चमन बन जाता। हासिम अंसारी की सोच अल्हदा दी। इस समय उनकी आवश्यकता थी। यदि हासिम अंसारी के नेक तर्क में दम है तो ऐसा क्या कारण है कि कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की टेर लगाते समय और धन, समाज के अमन-चैन को दांव पर लगा रहे है। स्थानीय जनता ने पहल की है, दस हजार से अधिक लोगों ने एक ज्ञापन पर रजाबंदी बताते हुए कहा कि शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में पहल हो। ज्ञापन में सचेत किया है कि पहल में स्थानीय लोगों को महत्व मिले। सियासत करने वाले लोगों को उसी तरह हाथ नहीं डालना चाहिए, जिस तरह इस ढांचे को बनाने वालों का मजहब से सरोकार नहीं था। उनका उद्देश्य समाज के विजित और विजेता के भाव को स्थायित्व प्रदान करना था। वास्तव में भारत की संस्कृति में नृपमत, लोकमत और साधुमत को मान्यता मिली है। जनता जाग चुकी है और इस मसले को लेकर जन-जन आश्वस्त है। 1992 की तरह न तो बगावती तेवर है और न जिद करने वालों को जनसमर्थन है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी को भी सकारात्मक ढंग से पढ़ा और सुना जाना चाहिए। 

 

Dakhal News 29 March 2017

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