Dakhal News
25 April 2024
उमेश त्रिवेदी
बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीतिक-आक्रामकता ने फिलवक्त उत्तर प्रदेश के चुनावी-परिदृश्य को तिकोने चुनावी संघर्ष में तब्दील कर दिया है। वो एक हाथ में पकड़ी ईंट को भाजपा की ओर उछालती हैं तो दूसरे हाथ के पत्थर से समाजवादी पार्टी पर प्रहार करती हैं। नोटबंदी के शोरशराबे में मद्धम पड़ी चुनावी-गतिविधियों में कांग्रेस सहित अन्य दलों की उपस्थिति हाशिए पर खिसकने लगी है। राहुल गांधी की किसान-रैली के बाद कांग्रेस की चुनावी गतिविधियों का मोमेण्टम कुछ ढीला पड़ा है, लेकिन भाजपा, सपा और बसपा के तेवरों में दिन-ब-दिन तेजाब घुलता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिवर्तन रैलियों के माध्यम से नोटबंदी को भुनाने में जुटी है, जबकि समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास की मशाल लेकर चुनावी-सफर पर निकल पड़े हैं। भाजपा और सपा के चुनावी काफिले के बीच सुप्रीमो मायावती के साथ बसपा का हाथी दलितों की रौद्रता के साथ चिंघाड़ रहा है। मायावती प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस एजेण्डे के खिलाफ उफन रही हैं, जिसके अंतर्गत भाजपा बाबासाहब को किडनेप करना चाहती है।
उप्र के चुनाव में इन तीनों नेताओं की शख्सियत के दिलचस्प पहलू देखने को मिल रहे है। प्रधानमंत्री मोदी के तौर-तरीकोें में जहां विपक्षी दलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करने की कोशिशें होती हैं, वहीं मायावती के भाषा-शिल्प का कसैलापन अपने पीछे कड़ुवाहट छोड़ता आगे बढ़ रहा है। नरेन्द्र मोदी और मायावती की तुलना में सपा के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाव-भाव का आकर्षण उनकी कटाक्षों वाली प्रचार-शैली की कूलनेस या ठंडक है, जो उन्हें सामान्य नेताओं से अलग करती है। नरेन्द्र मोदी और मायावती की शाब्दिक-अतिरंजनाओं और उत्तेजनाओं की तुलना में अखिलेश यादव अपने हर संभाषण में कूल नजर आते हैं।
उनकी शब्दावली रि-बाउन्स नहीं होती है, जबकि प्रधानमंत्री के संवाद अक्सर कटाक्ष और कटुता में लिपट कर वापस उनकी ओर लौटते हैं। मुरादाबाद की परिवर्तन-रैली में प्रधानमंत्री द्वारा खुद को फकीर के रूप में पेश करना सोशल मीडिया पर अलग-अलग अंदाज में चटक रहा है। प्रधानमंत्री की फकीरी का यह फलसफाना अंदाज सूट-बूट के किस्सों और अंबानी-अडानी के रिश्तों के साथ वापस लौट रहा है।
उप्र के चुनाव अभियान में सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फकीरी का सूफियाना अंदाज ही चर्चा में नहीं है, बल्कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती के बीच बुआ भतीजे का संवाद भी लोगों के बीच चटखारे का विषय है। गौरतबल है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मायावती को बुआ कहकर संबोधित करते रहे हैं। बुआ के इस संबोधन में छिपे कटाक्ष से विचलित मायावती ने इस पर आपत्ति की थी कि अखिलेश उन्हें बुआ कहकर संबोधित नहीं करें। अखिलेश ने उनकी इस आपत्ति के मद्देनजर कहा था कि वो मायावती को बुआ नहीं कहेंगे। लेकिन बसपा की मुखिया ने लखनऊ में बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर के 61वें परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में अखिलेश यादव को ’बबुआ’ संबोधित करके इस अध्याय को फिर से शुरू कर दिया है। अखिलेश यादव को ’बबुआ’ कहने के पीछे मायावती की राजनीतिक मंशा यह दर्शाने की है कि उनकी नजर में अखिलेश की राजनीतिक-हैसियत एक नासमझ बच्चे से ज्यादा नहीं है। यदि उनमें राजनीतिक-परिपक्वता होती तो वो लखनऊ में निर्मित आम्बेडकर स्मारक में बने हाथियों का जिक्र करके बसपा के चुनाव-चिन्ह का प्रसार नहीं करते। उल्लेखनीय है कि चुनाव अभियान में अखिलेश यादव सपा-सरकार के विकास कार्यों की चर्चा करते हुए अक्सर कटाक्ष करते हैं कि पिछले कई सालों से मायावती के हाथी जहां के तहां खड़े हैं, एक कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। इस फिजूलखर्ची से उप्र की जनता का क्या भला हुआ है? मायावती का कहना है कि मूर्तियों और स्मारकों के बारे में ऐसा सोच कोई बबुआ ही रख सकता है।
बहरहाल ये नेताओं के चुनावी जुमले हैं। चुनाव अभियान के दौरान जो तेजी से प्रचलन में आ रहे हैं। बुआ, बबुआ और फकीर के बीच यह राजनीतिक घमासान आगे क्या आकार लेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।[लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह लेख सुबह सवेरे से ]
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8 December 2016
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